Thursday, October 15, 2015

काश!

                                                काश!

बचपन की यादें धुंधली और अधूरी होती है,
कितना भी याद कर  लो तब भी पूरी नहीं होती है.
याद मुझे भी है बचपन के धुंधलेपन  की,
मम्मी का चिल्लाना और पापा के अपनेपन की.
समय ने फिर उल्टा फेर मारा,
पापा चिल्लाने लगे मम्मी ने घर संभाला.
क्या ये थी उनकी सोच या समाज का दबाव,
कि बेटियों को भैया कम ही पढ़ाओ.
जब लड़कों की असफलता और लड़कियों की सफलता उन्हें चुभने लगी,
ये क्या है, क्यों है, ये सोचकर मैं डरने लगी.
अब तो मुझे ये फासला मिटाना है,
अपने पापा की बेटी नहीं बेटा बनके दिखाना हैं.
सपना बड़ा जरूर हैं, पूरा करने की जिद भी भरपूर है.
लेकिन......
काश पापा समझ पाते, उनकी कमी को बस अपने होने से भर पाते,
बेटे तो उनके हैं ही, अपनी बेटी को भी बेटी समझ पाते.

Friday, October 9, 2015

छुपाओ नहीं बताओ

जब मुझे पहली मासिक धर्म हुए, तो मैं डर गई,

लेकिन जब डॉ. आंटी ने इसके कारण और जरूरत को समझाया तो थोड़ी संतुष्टि सी हुई.

लेकिन इन चार दिनों की झंझट मुझसे न संभाली गई,

न चाहते हुए भी मेरे चेहरे पर झुंझुलाहत आ गई.

मेरे चेहरे पर परेशानी देखकर मेरे दोस्त ने मुझसे पूछा- छुटकी तुझे क्या हुआ है.

तेरे चेहरे का तो रंग ही उड़ा हुआ है

बहुत मना करने के बाद जब मैंने उसे अपनी हालत बताई.

वो तो स्तब्ध हो गया, बोला ये कैसी परेशानी है जो सिर्फ तुम्हे ही आई.

ये परेशानी मेरी नहीं बल्कि उन सब लड़कियों की है जो मेरी उम्र में आती हैं.

रक्तपात, दर्द, कमजोरी वो सहन नही कर पाती है.

सुनकर ये बातें गोलू दौड़ा अपने घर जाकर बोला अपनी माँ से

माँ! क्या तुम भी उस दर्द से गुजरती हो, जिससे छुटकी गुजर रही है.

माँ बोली क्या?

अरे वही मासिक धर्म!!!

सुनकर ये बात वो दौड़ी मेरे घर को, बोली तनिक भी लज्जा और शर्म नहीं है तुमको.

काकी, इसमें लज्जा और शर्म की क्या बात है.

ये तो हम और आपके लिए आम बात है.

माहवारी शाप नहीं, महिला शरीर की आवश्यकता हैं.

इसे छुपाने में क्या बुद्धिमत्ता हैं.

अरे बेशर्म, इन सब बातों को अपने तक ही रखा जाता है.

इन्हें ऐसे किसी पुरुष को नहीं बताया जाता है.

ये बात तुम्हारे भी अपमान की है,

इसको ऐसे बताना हानि तुम्हारे मान सम्मान की है.

काकी, ये तो एक प्राकृतिक प्रक्रिया है,

जो हर औरत के जीवन की एक क्रिया है.

वैसे भी डॉ. आंटी ने कहा है कि-

अब इसे 'छुपाओ नही बताओ'....

Wednesday, October 7, 2015

अब बस करो

ये सुनना कितना दहशत भरा लगता हैं कि इंसानियत ने या ये कहे हैवानियत ने क्या रूख ले लिया है. ये कौन लोग हैं जो न जाने किस युग में जी रहे है. उन्हें क्या लगता हैं की ऐसा करना काबिले-तारीफ हैं. क्या इससे वो अपनी धार्मिक भावनाओं का उजागर कर रहे हैं या वो इतने संजीदा हैं अपनी धार्मिक निष्ठा को लेकर की कोई कैसे इसका मजाक उदा सकता हैं.. क्या वाकई???? जो कुछ पिछले दिनों दादरी में हुआ वो एक ऐसी शर्मनाक हत्या थी जिसको धर्म-जाति से जोड़ दिया गया. गायों की स्थिति अब वैसी नहीं रही जैसी की 'प्रेमचन्द' जी ने अपनी किताब 'गोदान' में दर्शायी थी, कि एक व्यक्ति कैसे निरंतर सोचता रहता है की काश कोई गाय उसके दरवाजें को सुशोभित करे, वो उसकी सेवा कर सके. उसका दूध दही उसके परिवार के स्वास्थ्य को बड़ायेंगा. अब तो न जाने कितनी गाय सड़कों पर लोगो की गलियाँ खाती घूम रही हैं. उनका कोई देखने वाला नहीं है. मैं ये नहीं कह रही की अगर गाय फालतू है तो उन्हें दूसरो की थाली में परोस दो. गाय हमारी संस्कृति से आज से नहीं न जाने कबसे जुडी हुई हैं. ग्रंथो में गाय के मूत्र तक को पवित्र कहा गया हैं. फिर ये स्थिति कब उत्पन्न हुई की गाय ऐसे रास्ते में दर दर भटकने पर मजबूर हो गई. जितने लोगों ने मिलकर उस एक व्यक्ति को मारा है अगर वो सब एक एक गाय को भी अपने घर रख ले, तो गायों की इस दयनीय स्थिति में कुछ तो सुधार हो. हर बात को धर्म से जोड़ना बेकार हैं. क्योंकि ऐसे बहुत से दलित है और ऐसे दूसरे लोग जो गाय का मांस खाते है. बस किसी का मुस्लिम होना इस बात का प्रमाण नहीं की वो दोषी हैं. और इन सबसे ऊपर ज्यादा धर्म संस्कृति का ठेका लेने वाले लोग अब तो तुम लग ही जाओ गाय पालन के लिए.. कम से कम तुम्हारी मांशिक स्थिति में न सही किन्तु तुम्हारे स्वास्थ्य में सुधार जरूर आ जायेगा.

Monday, September 7, 2015

लाइफ इन अ मेट्रो

लाइफ इन अ मेट्रो.......

कहते है की नया शहर आपके लिए न जाने कितनी नयी चीजें लेकर आता है... नयी जगह, नया माहौल, नये लोग, बगैरह बगैरह... मेरे लिए भी ये नया शहर कुछ एक टेंशन और बहुत सारी ख्वाहिशें लेकर आया हैं. ख्वाहिशें!!! आज़ादी से जीने की, अपने पैरों पर खड़े होने की. पहला दिन तो ठीक था लेकिन उसके बाद जब मैंने पहला कदम अकेले बाहर निकाला तो it’s quite interesting but lot’s of tension... वैसे एक बात तो हैं मेट्रो सिटीज के बारे में, आप यहाँ खो नहीं सकते. रास्ता तो मिल ही जाता हैं. और फिर ये आप पर निर्भर करता है की आप खोने में विश्वास रखते हैं या रास्ता ढूढने में. मेरे साथ पहले ही दिन ऐसी बहुत सी चीजे हुई जिससे मैं कन्फर्म हो गई, कि बिट्टा ये शहर तुम्हारे लिए परफेक्ट हैं. मैं तो परेशान हो गई थी सबकी नजरों से घर पर. और यहाँ किसी को किसी से मतलब ही नही हैं, लेकिन इसका ये भी मतलब नहीं है कि आपकी कोई मदद भी नही करेगा. आप एक से बोलिए चार होंगे. specially यूथ उनके लिए छोटा बड़ा कोई फर्क नही. कहते हैं कि लड़कियों के लिए बड़े शहर सेफ नही है. गलत.... इससे ज्यादा सेफ कोई और जगह नहीं होगी. जितनी आत्मनिर्भर यहाँ की लड़कियां हैं अगर उतनी पूरे भारत की ५% ही हो जाये तो फिर स्थिति ही बदल जाये. सुन्दर दिखना, कैसे कपड़े पहनना वो सब इन चीजों से ऊपर उठ गई हैं. उनकी सुन्दरता उनकी आत्मनिर्भरता से छलकती हैं, फिर उन्होंने जो भी ऊपरी लिबास डाला हो. मैं बहुत खुश हूँ कि आज मैं यहां का हिस्सा हूं. बस ये शहर मुझे भी धीरे धीरे अपना ले फिर सब सेट हैं..... 

Monday, April 20, 2015

बस चाह है मुझे.....

इस खुले उन्मुक्त गगन में, उड़ने की चाह है मुझे.
अपने पंखो के सहारे, सपने साकार करने की चाह है मुझे.
चढ़कर सारी ऊचाइयां, एक आशियाना बनाने की चाह है मुझे.
अवला नही सबला हूँ मैं, बन्धनों की नहीं कारवां की चाह है मुझे.
बड़ों का आशीष लेकर, स्वयं को आजमाने की चाह है मुझे. 
मूक नहीं सशक्त हूँ मैं, आवाज उठाने की चाह है मुझे.
माँ बेटी बीवी के किरदारों के साथ ही, खुद का अस्तित्व बनाने की चाह है मुझे.
चुनरी से आँचल तो बना लिया, बस अब परचम लहराने की चाह है मुझे.


Sunday, April 5, 2015

दामिनी यादव

दामनी यादव-
'' आज मेरी माहवारी का 
दूसरा दिन है। 
पैरों में चलने की ताकत नहीं है,
जांघों में जैसे पत्थर की सिल भरी है। 
पेट की अंतड़ियां
दर्द से खिंची हुई हैं।
इस दर्द से उठती रूलाई
जबड़ों की सखती में भिंची हुई है।
कल जब मैं उस दुकान में
‘व्हीस्पर’ पैड का नाम ले फुसफुसाई थी,
सारे लोगों की जमी हुई नजरों के बीच,
दुकानदार ने काली थैली में लपेट
मुझे ‘वो’ चीज लगभग छिपाते हुए पकड़ाई थी।
आज तो पूरा बदन ही
दर्द से ऐंठा जाता है।
ऑफिस में कुर्सी पर देर तलक भी
बैठा नहीं जाता है।
क्या करूं कि हर महीने के
इस पांच दिवसीय झंझट में,
छुट्टी ले के भी तो
लेटा नहीं जाता है।
मेरा सहयोगी कनखियों से मुझे देख,
बार-बार मुस्कुराता है,
बात करता है दूसरों से,
पर घुमा-फिरा के मुझे ही
निशाना बनाता है।
मैं अपने काम में दक्ष हूं।
पर कल से दर्द की वजह से पस्त हूं।
अचानक मेरा बॉस मुझे केबिन में बुलवाता हैै,
कल के अधूरे काम पर डांट पिलाता है।
काम में चुस्ती बरतने का
देते हुए सुझाव,
मेरे पच्चीस दिनों का लगातार
ओवरटाइम भूल जाता है।
अचानक उसकी निगाह,
मेरे चेहरे के पीलेपन, थकान
और शरीर की सुस्ती-कमजोरी पर जाती है,
और मेरी स्थिति शायद उसे
व्हीसपर के देखे किसी ऐड की याद दिलाती है।
अपने स्वर की सख्ती को अस्सी प्रतिशत दबाकर,
कहता है, ‘‘काम को कर लेना,
दो-चार दिन में दिल लगाकर।’’
केबिन के बाहर जाते
मेरे मन में तेजी से असहजता की
एक लहर उमड़ आई थी।
नहीं, यह चिंता नहीं थी
पीछे कुर्ते पर कोई ‘धब्बा’
उभर आने की।
यहां राहत थी
अस्सी रुपये में खरीदे आठ पैड से
‘हैव ए हैप्पी पीरियड’ जुटाने की।
मैं असहज थी क्योंकि
मेरी पीठ पर अब तक, उसकी निगाहें गढ़ी थीं,
और कानों में हल्की-सी
खिलखिलाहट पड़ी थी
‘‘इन औरतों का बराबरी का
झंडा नहीं झुकता है
जबकि हर महीने
अपना शरीर ही नहीं संभलता है।
शुक्र है हम मर्द इनके
ये ‘नाज-नखरे’ सह लेते हैं
और हंसकर इन औरतों को
बराबरी करने के मौके देते हैं।’’
ओ पुरुषो!
मैं क्या करूं
तुम्हारी इस सोच पर,
कैसे हैरानी ना जताऊं?
और ना ही समझ पाती हूं
कि कैसे तुम्हें समझाऊं!
मैं आज जो रक्त-मांस
सेनेटरी नैपकिन या नालियों में बहाती हूं,
उसी मांस-लोथड़े से कभी वक्त आने पर,
तुम्हारे वजूद के लिए,
‘कच्चा माल’ जुटाती हूं।
और इसी माहवारी के दर्द से
मैं वो अभ्यास पाती हूं ,
जब अपनी जान पर खेल
तुम्हें दुनिया में लाती हूं।
इसलिए अरे ओ मर्दो!
ना हंसो मुझ पर कि जब मैं
इस दर्द से छटपटाती हूं ,
क्योंकि इसी माहवारी की बदौलत मैं तुम्हें
‘ ‘ भ्रूण’ से इंसान बनाती हूं।

महामारी

                                                                     महामारी

12 साल में जब पहली बार मासिक धर्म शुरू हुआ तो ये किसी वज्रघात से कम नही था। अब पैर फैलाकर सोने से पहले सोचना था,दौड़ने से पहले सोचना था,कहीं जाने से पहले सोचना था।
सिर्फ बता दिया था कि हाँ ये हर महीने ये होगा, लेकिन उसे कैसे झेलना है इसका कोई उपाय नही था।
बाथरूम में खून के थक्के देखकर दिल सहम गया, सोचा इसको रोकूँगी कैसे।उस टाइम सैनिटरी नैपकिन कम ही लोग यूज़ करते थे।कम से कम मेरे घर में ये सुविधा पहुँच के बाहर थी।
पापा रेलवे में थे, तो उन्हें कॉटन के कपडे मिलते थे।माँ ने वही दिया इस्तेमाल करने को।
कपडे जाली जाली से हुआ करते तो देख कर असमंजस में पड़ गयी कि इसका इस्तेमाल करूँ कैसे, इसमें से तो दाग कपड़ो पर हर हाल में जाएंगे।
स्कूल में बाथरूम की व्यवस्था इतनी बेकार थी कि बीच में कपड़ा बदलने और खराब कपडे को फेंकने का ख्याल तो दूर से चला गया।
कुछ तय न कर पाने की स्थिति में जो तय किया वो कितना बेवकूफाना कदम था कि तब खुद पर फक्र हुआ और आज तरस आ रहा है।
एक कॉटन का कपडा अच्छा ख़ासा रुमाल कितना होता, तो स्कूल के पूरे 6 घंटों के लिए 12 कपडे एक के ऊपर एक रखकर इकट्ठे इस्तेमाल कर लिए।
अब आप मेरे लिए 2 मिनट का मौन रख सकते हैं।बिलकुल रखिये।12 कपड़ों को इकट्ठे कैसे इस्तेमाल किया होगा, इस पर हॉवर्ड ऑक्सफ़ोर्ड में रिसर्च किया जा सकता है, पर साथ कुछ बातों पर एक और रिसर्च भी हो,
1. जब आँख कान नाक मुंह से 2 मिनट खून निकलने पर पूरा मोहल्ला इकठ्ठा हो जाता है, तो इस दौरान 5 दिन लगातार 120 घंटों खून निकलने को आप एक आम सी प्रक्रिया कैसे मान सकते हैं?
2. आप जानते हैं कि माँ बनने के लिए नियमित मासिक धर्म कितना ज़रूरी है, तो 9 महीनो में ये 30 साल के 360 महीने और उनके 1800 घंटों को भी क्यों नही जोड़ लेते।
3. जब आप बच्चों के नैपी,खिलौने,माँ के लिए गर्भावस्था के दौरान और बच्चे के जन्म के बाद के सारे सामान बड़े जोश और उमंग से खरीदते हैं तो सैनिटरी नैपकिन को काली पन्नी में क्यों देते हैं?
4. इस दौरान सर के एक एक बाल से लेकर शरीर का हरेक हिस्सा और पैरों के तले तक दर्द नसों में ऊपर नीचे दौड़ता है, तो घर की औरतों को थोडा आराम क्यों नही देते?
5. हार्मोन्स के उतार चढाव का सिलसिला इस दौरान चरम पर होता है तो मंदिर मस्ज़िद गुरुद्वारे जाने से क्यों रोका जाए? इन जगह पर मानसिक शान्ति अगर मिलती है तो प्रवेश वर्जित क्यों?
6. इसमें छिपाने जैसा क्या है? नैपकिन को अखबार में छिपाकर बाथरूम तक ले जाना और फिर अखबार पन्नी में लपेट कर फेंकना, हद्द है।शौच आप कहीं खुले में जा सकते हैं लेकिन नैपकिन पर किसी की नज़र न पड़े।
7.इस समस्या के विषय में स्कूल से ही लड़को को लड़कियों के प्रति संवेदनशील क्यों नही बनाया जाता?
8.माँ बाप लड़कों को भाई के तौर पर बहन के लिए इस विषय पर संवेदनशील क्यों नही बनाते?क्यों 20-25 साल तक बहन के होते हुए सिर्फ 1 दिन में ही प्रेमिका या पत्नी द्वारा ही ये सब पता चलता है क्योंकि तब वहां 5 दिन शारीरिक सम्बन्ध की मनाही है।
अगर माँ बाप लड़को को इस विषय में संवेदनशील बनाये तो कम से कम घरो में सहारा हो जाए, नैपकिन खरीदने जाने में भाई मदद कर सके।
9.सिर्फ 5 दिन कामकाज की जगह पर महिलाओं को क्यों भारी कामकाज से मुक्ति नही मिल सकती?
एक सामान्य मगर दर्द देने वाली प्राकृतिक प्रक्रिया से ज़िन्दगी के 30 साल गुज़रने में मदद देने की बजाय उसे इतना क्लिष्ट बना दिया जाता है, कि महीने के 25 दिन इन 5 दिनों की चिंता की भेंट चढ़ जाते हैं।

Friday, March 6, 2015

आज फिर

                                                       आज फिर 

आज फिर मेरी नजरें शीशे में शर्मा गईं,
आज फिर किसी की यादें एहसास नया जगा गईं,
आज फिर से इच्छाओं ने नयी उड़ान भरी हैं,
आज फिर रोने में हसने की लड़ी हैं,
आज फिर दर्द में चैन का आलम हैं,
आज फिर धूप में ठण्ड का मौसम हैं,
आज फिर मजबूरियों ने उनको बुलाया हैं,
और उन्हें भी मेरे होने का एहसास दिलाया हैं,
मुझे ख्याल ही नहीं रहा अपनी बदकिस्मती का,
कि आज फिर उन्होंने मेरे ऊपर एहसान दिखाया हैं.

Friday, February 13, 2015

प्रेम

                                               प्रेम

कहते है प्रेम एक ऐसा शब्द है जो सदियों से चला आ रहा हैं. आज भी हम किसी न किसी रूप में प्रेम को अपने अन्दर पाते हैं, प्रेम को दो व्यक्तियों से परिभाषित नहीं किया जा सकता. चाहे माँ-बाप के प्रति, पुत्र-पुत्री का प्रेम, भाई-बहन का प्रेम या युवक युवती का प्रेम. हमारे पुरानों में राधा कृष्णा का प्रेम सर्वोपरी माना जाता हैं, किन्तु आज के युग में ऐसा प्रेम सिर्फ कहानियों में ही रह गया हैं. समय के साथ हर चीज में अत्यधिक परिवर्तन हुआ हैं.
      आज के समय में प्रेम छल, कपट एवं वासना का ही प्रतीक बनके रह गया हैं, बहुत कम लोग हैं जिनके अन्दर प्रेम अब भी जीवित हैं. प्रेम ने हर क्षेत्र में अलग ही रूप ले लिया हैं, मनोरंजन के क्षेत्र में भी अब ऐसी फिल्मों, नाटकों का प्रसारण हो रहा हैं, जिनमे प्रेम को सिर्फ फूहड़पन और अश्लीलता के रूप में परोसा जा रहा हैं. इस तरह के परिवर्तन का एक मात्र कारन आज के मनुष्यों की मानसिकता हैं, जो निरंतर बदलती जा रही हैं. 'धर्मवीर भारती'  द्वारा लिखित उपन्यास 'गुनाहों का देवता' यह प्रेम की उस दशा को समझता हैं जिसमे सिर्फ त्याग हैं. कभी कभी ऐसा होता हैं कि हमारे अन्दर प्रेम की भावनाएं उत्पन्न तो हो जाती हैं, किन्तु हम उन्हें समझ नहीं पाते और यदि समझ भी जाये तो उन्हें या तो दबा दिया जाता है, या खत्म कर  दिया जाता हैं.
       समाचार पत्रों में कई ऐसे केस मिल जायेंगे जो ऑनर किलिंग पर आधारित हैं. धर्म जाति के आधार पर भी प्रेम का विनाश किया जा रहा हैं. और तो और आज कल तोह नया  ट्रेंड चल गया हैं, कि लडकी को देखा प्यार हुआ मानी तो मानी नहीं तो मार दो, रोंद दो. कहते हैं न की संसार में हर तरह के लोग व्याप्त है जिनकी मानसिकता एक दुसरे से अलग होती हैं. कुछ लोग प्रेम को भगवन का दर्जा देते है कुछ लोगों का मानना है की प्रेम का मतलब सिर्फ संभोग से हैं तथा कुछ लोग उसी प्रेम के नाम पर अनेक गलत कार्य कर रहे हैं. अगर प्रेम के जगत में आज के समय को कलयुग कहें तो वह गलत न होंगा.

Thursday, February 12, 2015

शराब से हो रही जन धन की हानि

                         शराब से हो रही जन धन की हानि


इस दौर में जहाँ लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन कर रहे हैं. वही शराब की बढ़ती मांग व खुल रहे गैर क़ानूनी ठेके इस बात का प्रमाण है कि सिर्फ अच्छे कार्यों में ही भ्रष्टता नहीं है. बल्कि शराब जैसे मादक पदार्थ में भी भ्रष्टाचार व्याप्त हैं, जिसमें धन की तो हानि होती हैं ही जन की भी हानि होती हैं. कहते हैं न कि अति हर चीज की बुरी होती हैं. शराब भी ऐसा मादक पदार्थ हैं, जिसका ज्यादा सेवन लोगों के लिए दुखदायी होता है. यह अनेक शारीरिक रोगों को उत्पन्न करती हैं व हमारे दिमाग पर भी असर करती हैं. माना कि शराब सरकार की आय का बहुत बड़ा हिस्सा मिलता है, फिर भी शराब को अवैध तरीके से बाज़ार में लाया जाता हैं. कई बड़ी कम्पनियों द्वारा शराब का उत्पादन किया जाता हैं. राष्ट्रीय पर्वों पर भी शराब पर रोक लगाई जाती हैं,, किन्तु फिर भी ब्लैक में शराब बेचीं जाती है. शराब पीने के लिए भी सरकार ने एक समयसीमा निर्धारित की, किन्तु ऐसा कुछ निर्धारित नही है कि लोग इस समयसीमा का ध्यान रखे. करने वाले हर कार्य उम्र को ध्यान में रखकर नही करते. काफी समय पहले बॉलीवुड अभिनेता इमरान खान ने कोर्ट में याचिका दाखिल की थी की शराब पीने की उम्र कम की जाये. क्योकि जब वोट डालने की सीमा १८ वर्ष है तो इसकी क्यों नहीं.
                                          बात यहां पर शराब की हानियों को लेकर नहीं की जा रही और न ही उसे पीने के अधिकार की है. बल्कि आज के समय में १०० में से १० लोग ही ऐसे होंगे जो अपने अधिकारों व अपनी स्वतंत्रता की गरिमा को समझते है तथा उनका सही उपयोग करते है. जब हमारे मौलिक अधिकारों के बारे में किसी को कोई समझ नहीं, तो शराब पीने के अधिकार को क्या समझेगा. आज तो सबके अपने नियम कानून बन गये हैं. कुछ लोग इसमें बदलाव लाना चाहते हैं और कुछ सोचते हैं की  जैसा चल रहा हैं वैसा चलने दो. हमे चाहिए की हर चीज को स्पष्टता से समझे फिर विचार करे. शराब का व्यवसाय सरकार की  जड़ों में समाया है जिसका कोई निराकरण नहीं है.

Tuesday, February 3, 2015

अस्तित्व या व्यक्तित्व

                                अस्तित्व या व्यक्तित्व 

मैं, मैं क्या हूँ.
अस्तित्व हूँ या व्यक्तित्व 
नजर हूँ या पर्दा
लाज हूँ या इज्जत
शर्म हूँ या गर्व
जब जानने की ये चेष्टा की मैंने, तो बतलाया गया मुझे कि तुम? तुम एक औरत हो बस औरत.
क्या मानती मैं इस शब्द को? 
क्या परिभाषा देती मैं इसे?
मैं तोह एक औरत हूँ जो लड़ रही हैं अस्तित्व और व्यक्तित्व की लड़ाई.
मर रही हैं पल पल, कि अस्तित्व बचाऊ या व्यक्तित्व.
किसके हनन से ज्यादा हानि होगी.
बहुत विचार करने के बाद फैसला लिया कि व्यक्तित्व का हनन तोह न जाने कब से हो रहा हैं. पर अब जो अस्तित्व के लिए लड़ रही हूँ, उसको कभी न छोडूंगी. न जाने कितनी मेहनत के बाद अस्तित्व  बचाने का बीड़ा उठा पाई हूँ, नहीं तोह अभी तक बस इसे सब रोंदते चले आ रहे थे. और रही बात व्यक्तित्व की, वह आज हैं कल नहीं. अस्तित्व के सहारे ही व्यक्तित्व का निर्माण होता है. और वैसे भी औरतों के लिए कभी कोई सफ़र आसन नहीं रहा, उन्हें हमेशा चुनाव करना पड़ता हैं. जिन्दगी के हर कदम पर कभी पिता कभी भाई कभी पति और कभी बच्चों के बीच चुनाव. जहाँ हमेशा औरतों ने समझोते किये हैं. अपने अस्तित्व से ज्यादा उन्हें औरो की परवाह रही. बस एक चीज अच्छी हुई की इस चुनाव के दौर से निकलते हुए और वह यह कि अब औरत ने अपने अस्तित्व को चुना है. और वह लड़ भी रही है. बहुत अच्छा लगता हैं यह देखके की अब औरत  बेचारी वाली प्रवत्ति से उठ रही हैं. और वह लड़ रही है.. और विश्वास हैं की एक न एक दिन वह अपने अस्तित्व की लड़ाई जरुर जीतेंगी.