Thursday, October 15, 2015

काश!

                                                काश!

बचपन की यादें धुंधली और अधूरी होती है,
कितना भी याद कर  लो तब भी पूरी नहीं होती है.
याद मुझे भी है बचपन के धुंधलेपन  की,
मम्मी का चिल्लाना और पापा के अपनेपन की.
समय ने फिर उल्टा फेर मारा,
पापा चिल्लाने लगे मम्मी ने घर संभाला.
क्या ये थी उनकी सोच या समाज का दबाव,
कि बेटियों को भैया कम ही पढ़ाओ.
जब लड़कों की असफलता और लड़कियों की सफलता उन्हें चुभने लगी,
ये क्या है, क्यों है, ये सोचकर मैं डरने लगी.
अब तो मुझे ये फासला मिटाना है,
अपने पापा की बेटी नहीं बेटा बनके दिखाना हैं.
सपना बड़ा जरूर हैं, पूरा करने की जिद भी भरपूर है.
लेकिन......
काश पापा समझ पाते, उनकी कमी को बस अपने होने से भर पाते,
बेटे तो उनके हैं ही, अपनी बेटी को भी बेटी समझ पाते.

Friday, October 9, 2015

छुपाओ नहीं बताओ

जब मुझे पहली मासिक धर्म हुए, तो मैं डर गई,

लेकिन जब डॉ. आंटी ने इसके कारण और जरूरत को समझाया तो थोड़ी संतुष्टि सी हुई.

लेकिन इन चार दिनों की झंझट मुझसे न संभाली गई,

न चाहते हुए भी मेरे चेहरे पर झुंझुलाहत आ गई.

मेरे चेहरे पर परेशानी देखकर मेरे दोस्त ने मुझसे पूछा- छुटकी तुझे क्या हुआ है.

तेरे चेहरे का तो रंग ही उड़ा हुआ है

बहुत मना करने के बाद जब मैंने उसे अपनी हालत बताई.

वो तो स्तब्ध हो गया, बोला ये कैसी परेशानी है जो सिर्फ तुम्हे ही आई.

ये परेशानी मेरी नहीं बल्कि उन सब लड़कियों की है जो मेरी उम्र में आती हैं.

रक्तपात, दर्द, कमजोरी वो सहन नही कर पाती है.

सुनकर ये बातें गोलू दौड़ा अपने घर जाकर बोला अपनी माँ से

माँ! क्या तुम भी उस दर्द से गुजरती हो, जिससे छुटकी गुजर रही है.

माँ बोली क्या?

अरे वही मासिक धर्म!!!

सुनकर ये बात वो दौड़ी मेरे घर को, बोली तनिक भी लज्जा और शर्म नहीं है तुमको.

काकी, इसमें लज्जा और शर्म की क्या बात है.

ये तो हम और आपके लिए आम बात है.

माहवारी शाप नहीं, महिला शरीर की आवश्यकता हैं.

इसे छुपाने में क्या बुद्धिमत्ता हैं.

अरे बेशर्म, इन सब बातों को अपने तक ही रखा जाता है.

इन्हें ऐसे किसी पुरुष को नहीं बताया जाता है.

ये बात तुम्हारे भी अपमान की है,

इसको ऐसे बताना हानि तुम्हारे मान सम्मान की है.

काकी, ये तो एक प्राकृतिक प्रक्रिया है,

जो हर औरत के जीवन की एक क्रिया है.

वैसे भी डॉ. आंटी ने कहा है कि-

अब इसे 'छुपाओ नही बताओ'....

Wednesday, October 7, 2015

अब बस करो

ये सुनना कितना दहशत भरा लगता हैं कि इंसानियत ने या ये कहे हैवानियत ने क्या रूख ले लिया है. ये कौन लोग हैं जो न जाने किस युग में जी रहे है. उन्हें क्या लगता हैं की ऐसा करना काबिले-तारीफ हैं. क्या इससे वो अपनी धार्मिक भावनाओं का उजागर कर रहे हैं या वो इतने संजीदा हैं अपनी धार्मिक निष्ठा को लेकर की कोई कैसे इसका मजाक उदा सकता हैं.. क्या वाकई???? जो कुछ पिछले दिनों दादरी में हुआ वो एक ऐसी शर्मनाक हत्या थी जिसको धर्म-जाति से जोड़ दिया गया. गायों की स्थिति अब वैसी नहीं रही जैसी की 'प्रेमचन्द' जी ने अपनी किताब 'गोदान' में दर्शायी थी, कि एक व्यक्ति कैसे निरंतर सोचता रहता है की काश कोई गाय उसके दरवाजें को सुशोभित करे, वो उसकी सेवा कर सके. उसका दूध दही उसके परिवार के स्वास्थ्य को बड़ायेंगा. अब तो न जाने कितनी गाय सड़कों पर लोगो की गलियाँ खाती घूम रही हैं. उनका कोई देखने वाला नहीं है. मैं ये नहीं कह रही की अगर गाय फालतू है तो उन्हें दूसरो की थाली में परोस दो. गाय हमारी संस्कृति से आज से नहीं न जाने कबसे जुडी हुई हैं. ग्रंथो में गाय के मूत्र तक को पवित्र कहा गया हैं. फिर ये स्थिति कब उत्पन्न हुई की गाय ऐसे रास्ते में दर दर भटकने पर मजबूर हो गई. जितने लोगों ने मिलकर उस एक व्यक्ति को मारा है अगर वो सब एक एक गाय को भी अपने घर रख ले, तो गायों की इस दयनीय स्थिति में कुछ तो सुधार हो. हर बात को धर्म से जोड़ना बेकार हैं. क्योंकि ऐसे बहुत से दलित है और ऐसे दूसरे लोग जो गाय का मांस खाते है. बस किसी का मुस्लिम होना इस बात का प्रमाण नहीं की वो दोषी हैं. और इन सबसे ऊपर ज्यादा धर्म संस्कृति का ठेका लेने वाले लोग अब तो तुम लग ही जाओ गाय पालन के लिए.. कम से कम तुम्हारी मांशिक स्थिति में न सही किन्तु तुम्हारे स्वास्थ्य में सुधार जरूर आ जायेगा.