Monday, April 20, 2015

बस चाह है मुझे.....

इस खुले उन्मुक्त गगन में, उड़ने की चाह है मुझे.
अपने पंखो के सहारे, सपने साकार करने की चाह है मुझे.
चढ़कर सारी ऊचाइयां, एक आशियाना बनाने की चाह है मुझे.
अवला नही सबला हूँ मैं, बन्धनों की नहीं कारवां की चाह है मुझे.
बड़ों का आशीष लेकर, स्वयं को आजमाने की चाह है मुझे. 
मूक नहीं सशक्त हूँ मैं, आवाज उठाने की चाह है मुझे.
माँ बेटी बीवी के किरदारों के साथ ही, खुद का अस्तित्व बनाने की चाह है मुझे.
चुनरी से आँचल तो बना लिया, बस अब परचम लहराने की चाह है मुझे.


Sunday, April 5, 2015

दामिनी यादव

दामनी यादव-
'' आज मेरी माहवारी का 
दूसरा दिन है। 
पैरों में चलने की ताकत नहीं है,
जांघों में जैसे पत्थर की सिल भरी है। 
पेट की अंतड़ियां
दर्द से खिंची हुई हैं।
इस दर्द से उठती रूलाई
जबड़ों की सखती में भिंची हुई है।
कल जब मैं उस दुकान में
‘व्हीस्पर’ पैड का नाम ले फुसफुसाई थी,
सारे लोगों की जमी हुई नजरों के बीच,
दुकानदार ने काली थैली में लपेट
मुझे ‘वो’ चीज लगभग छिपाते हुए पकड़ाई थी।
आज तो पूरा बदन ही
दर्द से ऐंठा जाता है।
ऑफिस में कुर्सी पर देर तलक भी
बैठा नहीं जाता है।
क्या करूं कि हर महीने के
इस पांच दिवसीय झंझट में,
छुट्टी ले के भी तो
लेटा नहीं जाता है।
मेरा सहयोगी कनखियों से मुझे देख,
बार-बार मुस्कुराता है,
बात करता है दूसरों से,
पर घुमा-फिरा के मुझे ही
निशाना बनाता है।
मैं अपने काम में दक्ष हूं।
पर कल से दर्द की वजह से पस्त हूं।
अचानक मेरा बॉस मुझे केबिन में बुलवाता हैै,
कल के अधूरे काम पर डांट पिलाता है।
काम में चुस्ती बरतने का
देते हुए सुझाव,
मेरे पच्चीस दिनों का लगातार
ओवरटाइम भूल जाता है।
अचानक उसकी निगाह,
मेरे चेहरे के पीलेपन, थकान
और शरीर की सुस्ती-कमजोरी पर जाती है,
और मेरी स्थिति शायद उसे
व्हीसपर के देखे किसी ऐड की याद दिलाती है।
अपने स्वर की सख्ती को अस्सी प्रतिशत दबाकर,
कहता है, ‘‘काम को कर लेना,
दो-चार दिन में दिल लगाकर।’’
केबिन के बाहर जाते
मेरे मन में तेजी से असहजता की
एक लहर उमड़ आई थी।
नहीं, यह चिंता नहीं थी
पीछे कुर्ते पर कोई ‘धब्बा’
उभर आने की।
यहां राहत थी
अस्सी रुपये में खरीदे आठ पैड से
‘हैव ए हैप्पी पीरियड’ जुटाने की।
मैं असहज थी क्योंकि
मेरी पीठ पर अब तक, उसकी निगाहें गढ़ी थीं,
और कानों में हल्की-सी
खिलखिलाहट पड़ी थी
‘‘इन औरतों का बराबरी का
झंडा नहीं झुकता है
जबकि हर महीने
अपना शरीर ही नहीं संभलता है।
शुक्र है हम मर्द इनके
ये ‘नाज-नखरे’ सह लेते हैं
और हंसकर इन औरतों को
बराबरी करने के मौके देते हैं।’’
ओ पुरुषो!
मैं क्या करूं
तुम्हारी इस सोच पर,
कैसे हैरानी ना जताऊं?
और ना ही समझ पाती हूं
कि कैसे तुम्हें समझाऊं!
मैं आज जो रक्त-मांस
सेनेटरी नैपकिन या नालियों में बहाती हूं,
उसी मांस-लोथड़े से कभी वक्त आने पर,
तुम्हारे वजूद के लिए,
‘कच्चा माल’ जुटाती हूं।
और इसी माहवारी के दर्द से
मैं वो अभ्यास पाती हूं ,
जब अपनी जान पर खेल
तुम्हें दुनिया में लाती हूं।
इसलिए अरे ओ मर्दो!
ना हंसो मुझ पर कि जब मैं
इस दर्द से छटपटाती हूं ,
क्योंकि इसी माहवारी की बदौलत मैं तुम्हें
‘ ‘ भ्रूण’ से इंसान बनाती हूं।

महामारी

                                                                     महामारी

12 साल में जब पहली बार मासिक धर्म शुरू हुआ तो ये किसी वज्रघात से कम नही था। अब पैर फैलाकर सोने से पहले सोचना था,दौड़ने से पहले सोचना था,कहीं जाने से पहले सोचना था।
सिर्फ बता दिया था कि हाँ ये हर महीने ये होगा, लेकिन उसे कैसे झेलना है इसका कोई उपाय नही था।
बाथरूम में खून के थक्के देखकर दिल सहम गया, सोचा इसको रोकूँगी कैसे।उस टाइम सैनिटरी नैपकिन कम ही लोग यूज़ करते थे।कम से कम मेरे घर में ये सुविधा पहुँच के बाहर थी।
पापा रेलवे में थे, तो उन्हें कॉटन के कपडे मिलते थे।माँ ने वही दिया इस्तेमाल करने को।
कपडे जाली जाली से हुआ करते तो देख कर असमंजस में पड़ गयी कि इसका इस्तेमाल करूँ कैसे, इसमें से तो दाग कपड़ो पर हर हाल में जाएंगे।
स्कूल में बाथरूम की व्यवस्था इतनी बेकार थी कि बीच में कपड़ा बदलने और खराब कपडे को फेंकने का ख्याल तो दूर से चला गया।
कुछ तय न कर पाने की स्थिति में जो तय किया वो कितना बेवकूफाना कदम था कि तब खुद पर फक्र हुआ और आज तरस आ रहा है।
एक कॉटन का कपडा अच्छा ख़ासा रुमाल कितना होता, तो स्कूल के पूरे 6 घंटों के लिए 12 कपडे एक के ऊपर एक रखकर इकट्ठे इस्तेमाल कर लिए।
अब आप मेरे लिए 2 मिनट का मौन रख सकते हैं।बिलकुल रखिये।12 कपड़ों को इकट्ठे कैसे इस्तेमाल किया होगा, इस पर हॉवर्ड ऑक्सफ़ोर्ड में रिसर्च किया जा सकता है, पर साथ कुछ बातों पर एक और रिसर्च भी हो,
1. जब आँख कान नाक मुंह से 2 मिनट खून निकलने पर पूरा मोहल्ला इकठ्ठा हो जाता है, तो इस दौरान 5 दिन लगातार 120 घंटों खून निकलने को आप एक आम सी प्रक्रिया कैसे मान सकते हैं?
2. आप जानते हैं कि माँ बनने के लिए नियमित मासिक धर्म कितना ज़रूरी है, तो 9 महीनो में ये 30 साल के 360 महीने और उनके 1800 घंटों को भी क्यों नही जोड़ लेते।
3. जब आप बच्चों के नैपी,खिलौने,माँ के लिए गर्भावस्था के दौरान और बच्चे के जन्म के बाद के सारे सामान बड़े जोश और उमंग से खरीदते हैं तो सैनिटरी नैपकिन को काली पन्नी में क्यों देते हैं?
4. इस दौरान सर के एक एक बाल से लेकर शरीर का हरेक हिस्सा और पैरों के तले तक दर्द नसों में ऊपर नीचे दौड़ता है, तो घर की औरतों को थोडा आराम क्यों नही देते?
5. हार्मोन्स के उतार चढाव का सिलसिला इस दौरान चरम पर होता है तो मंदिर मस्ज़िद गुरुद्वारे जाने से क्यों रोका जाए? इन जगह पर मानसिक शान्ति अगर मिलती है तो प्रवेश वर्जित क्यों?
6. इसमें छिपाने जैसा क्या है? नैपकिन को अखबार में छिपाकर बाथरूम तक ले जाना और फिर अखबार पन्नी में लपेट कर फेंकना, हद्द है।शौच आप कहीं खुले में जा सकते हैं लेकिन नैपकिन पर किसी की नज़र न पड़े।
7.इस समस्या के विषय में स्कूल से ही लड़को को लड़कियों के प्रति संवेदनशील क्यों नही बनाया जाता?
8.माँ बाप लड़कों को भाई के तौर पर बहन के लिए इस विषय पर संवेदनशील क्यों नही बनाते?क्यों 20-25 साल तक बहन के होते हुए सिर्फ 1 दिन में ही प्रेमिका या पत्नी द्वारा ही ये सब पता चलता है क्योंकि तब वहां 5 दिन शारीरिक सम्बन्ध की मनाही है।
अगर माँ बाप लड़को को इस विषय में संवेदनशील बनाये तो कम से कम घरो में सहारा हो जाए, नैपकिन खरीदने जाने में भाई मदद कर सके।
9.सिर्फ 5 दिन कामकाज की जगह पर महिलाओं को क्यों भारी कामकाज से मुक्ति नही मिल सकती?
एक सामान्य मगर दर्द देने वाली प्राकृतिक प्रक्रिया से ज़िन्दगी के 30 साल गुज़रने में मदद देने की बजाय उसे इतना क्लिष्ट बना दिया जाता है, कि महीने के 25 दिन इन 5 दिनों की चिंता की भेंट चढ़ जाते हैं।