Wednesday, December 3, 2014

औरत

                                          औरत

औरत क्या हैं? क्या वह देवी हैं! एक अदना सा शरीर है या मॉस का बस एक लुथदा. उसका अस्तित्व क्या हैं? क्यों हमेशा उसका अस्तित्व बेटी, बहन, बीवी, माँ बनकर ही आँका जाता हैं? क्या वह सिर्फ एक औरत नही रह सकती? क्या औरत होना कोई श्राप है, जो उसपर हमेशा जहमते लगाई जाती है. क्यों औरत को हमेशा बांधे रखा जाता है कभी लाज शर्म की बेड़ियों में, कभी इज्जत की धार पर. क्यों हमेशा उसे  बेबुनियादी जामा पहनाकर लोगों से रूबरू कराया जाता है. क्यों औरत का अस्तित्व एक औरत बनकर नही रखा जा सकता? क्यों हमेशा उसे एक सहारे की जरुरत होती है, फिर चाहे वो सहारा उसके लिए जिल्लत बन जाये.क्यों इज्जत और आबरू की धरोहर औरतों को ही सौपी जाती है, ताकि कोई भी आके उसे रौंद सके. ऐसे सवालात हर उस औरत के मन में बार बार उमड़ते होंगे, जो जंजीरों की बेड़ियों में इस कदर फंसी हुई हैं कि उसकी आवाज सुनने वाला भी उसे कोई नजर नहीं आता होगा. यही हालत होती हैं एक औरत की जब उससे उसके सारे  सहारे छीन  लिए जाते है, फिर तो वह कहीं की नही रहती. द्रोपदी को क्यों कृष्णा भगवान् की जरुरत आन पड़ी थी, क्योंकि वह औरत थी. हम चाहे कितनी भी बाते कर ले नारी सशक्तिकरण को लेकर होना कुछ नही है. क्योकि भुगतना हमेशा औरत को ही पड़ता हैं. हर तरह के कसीदे उस पर ही लगाये जाते हैं. कब तक  ऐसा चलेगा और कब वो समय आएगा जब औरत को उसके होने का एहसास होंगा. उसे यह एहसास होगा की उसका भी कोई अस्तित्व हैं. उसे किसी के सहारे की जरुरत नही हैं. वह रह सकती है जैसे उसे रहना हैं, व उसे किसी की नहीं बल्कि सबको उसकी जरुरत हैं. कब??????????

कब वो दिन आएगा. उस दिन का आना एक दिवास्वप्न की तरह लगता हैं ....

Sunday, November 30, 2014

द्रष्टिकोण

कितना सुन्दर है ये नजारा. लोगो की भीड़ चहल पहल. बेफिक्र होकर सब मस्त है. सबको अपने होने का एहसास है और मैं भी इस भीड़ का हिस्सा हूँ कल की सोचे बिना बस मस्त. तरह-तरह के खाने के स्टॉल, जो खाने से ज्यादा अपनी सजावट के लिए आकर्षण का केंद्र बने हैं, सबमे एक नयापन हैं. राजस्थानी नाच की धूम मची हैं,, जहाँ मजीरो और ताशों पर रंग बिरंगे कपड़े पहने छोटे-छोटे बच्चें नाच रहे हैं.एक सीटी वाला साधारण सी सीटी को बड़े ही अनोखे ढंग से बजा रहा था. मैंने सोचा की मैं भी एक सीटी ले लूँ, फिर ख्याल आया अपनी काबिलियत पर की मुझसे तो बज गई ऐसे सीटी. वहां पर मौजूद हर वस्तु ने इस माहौल को जिन्दा कर रखा था. साथ में था पुस्तक मेला, जहाँ पर पुस्तकों का भण्डार तो देखने लायक था. लेकिन आज के इस मॉडर्न युग में एक क्लिक पर दुनिया चलती है, तो किताबें वाले ज्यादा थे खरीदने वाले थोड़े कम, उनमें से एक मैं भी थी. पूरे माहौल का जायजा लेने के बाद जब मैं एक कॉर्नर में चाय की दुकान पर बैठी तो बाकि सबको देखके लगा कि सब कितने व्यस्त है और जब कभी आप अकेले बैठकर भीड़  को देखते है तो वो नजारा कितना रोचक लगता है. मेरे बगल में एक सज्जन आराम से चाय की चुस्कियां ले रहे थे. मैं भी अपना ध्यान भीड़ की तरफ केन्द्रित किये हुए थी. तभी एक हाफ स्वेटर में इतनी ज्यादा ठण्ड को झेलता हुआ व्यक्ति (जो अभी मुश्किल से ३० का भी नहीं होगा, लेकिन अपनी दयनीय स्थिति की वजह से वृद्ध लग रहा था) ने मुझसे पूछा, बहन जी यहाँ जो सज्जन बैठे थे वह कहाँ गये. उन्होंने चाय पी और पैसे तो देके ही नहीं गये. मैंने न में सर हिला दिया की मुझे नहीं पता, लेकिन शायद मेरे ऐसा करने से उसकी आखिरी उम्मीद भी टूट गयी. वह बेचारा नौकर अपने मालिक की डांट खा रहा था, कि तुमने देखा तक नहीं कि कहां गया वह व्यक्ति बिना पैसे लिए तुमने उसे जाने कैसे दिया. चाय के पैसे तुम्हारी तनख्वा से कट. मुझे इतना ख़राब लगा और जैसे ही मैं उठी तो देखा वह व्यक्ति लौटकर आया और माफ़ी के साथ चाय के रूपए दिए. उस नौकर की जैसे जान में जान आई. बात यहां सिर्फ चाय के पैसे लौटाने की नहीं है और न ही यह कि उसने कितना महान काम किया. उस व्यक्ति ने तो वही किया जो उसे थोड़ी देर पहले करना था, जैसे ही उसकी चाय खत्म हुई थी. बात यहां सिर्फ ईमानदारी की है कैसे उस व्यक्ति ने अपनी गलती का एहसास कर उसे रूपए देने आ गया. यह एक छोटी सी बात थी. लेकिन अगर हम चाहे तो इन्ही छोटी छोटी चीजो से कोई बड़ी पहल भी कर सकते. और महान काम तब होगा जब आप सच में किसी के लिए मददगार साबित होंगे. अतः अपना द्रष्टिकोण ऐसा बनाये कि हफ्ते में एक बार हम किसी के कम आये.
राहे तो बहुत है जीने को, गर जी सके हम किसी के लिए.
बस जरा सी जहमत उठाने की देरी है, गर हम उठा सके किसी के लिए.

Sunday, November 16, 2014

मैं अनाथ हूँ.........

                                          मैं अनाथ हूं


मैं लड़की, मैं अनाथ हूं। मुझे तो याद भी नहीं कि कब मुझे जन्म देने वाली लड़की ने खुद लड़की होते हुये मुझ जैसी लड़की को अनाथ कर दिया। बस याद तो मुझे वहां से हैं, जब एक मुझ जैसी बूढ़ी लड़की मुझसे कूड़ा बिनवाती भीख मंगवाती थी। बदले में उसके उस गोल बड़े से पहिये जैसे घर में मुझे खाने को एक रोटी और सोने को जगह मिल जाती थी। मुझ जैसी न जाने कितनी लड़कियां थी वहां हर पहिये वाले घर में। मां षब्द का मतलब ही नहीं पता मु़झे, बस ये पता हैं कि वह बूढ़ी लड़की अपने आपको मां कहलवाती थी। जब मैं समझने लगी कि मैं एक लड़की हूं, जिसका अस्तित्व यही पहिये वाला घर है और इसी घर में मैं भी इन बूढ़ी लड़की जैसी हो जाऊंगी। तभी वो मुझे ले गई एक बड़ें से घर में। वो बड़ा सा घर! समझ ही नहीं आ रहा था कि ऐसा घर भी होता हैं। वहां साफ सुथरे कपड़ों मे बैठी एक और मुझ जैसी लड़की ने मुझे प्यार से बुलाया। उस दिन मैं पहचानी थी कि कोई प्यार से बोलने वाली भाषा भी होती हैं। उस बूढ़ी लड़की ने मुझे वहां छोड़ दिया। उस घर का दृष्य आज भी मेरे जहन से नहीं जाता जहां भर पेट खाना, साफ कपड़ें पाकर मैं बेहद खुष थी। नई मां जैसी लड़की ने मुझे दुलार किया। वहां किसी भी लड़की कोई कोई कष्ट नहीं था लेकिन सवालत् बहुत से थे। मैं जब इस स्थिति व आराम की बेला को समझ पाती, तब तक देखा कोई मुझसे मिलने आया हैं। मैं आष्चर्य में थी कि मेरा तो कोई नहीं है, यहां तक किसी अपने का एहसास तक नहीं है मुझे। फिर ये कौन मिलने आया है? आकर देखा तो एक व्यक्ति मुझे अपने साथ ले जाने के लिये खड़ा था। मैनें उस दुलारी मां की तरफ देखा तो पाया कि उनके मुख का स्वरूप ही बदला हुआ है। मैं उनसे सवालात् ही क्या करती, जबकि मुझे उन तमाम लड़कियों के सवालों के भी जवाब मिल गये थे। मैं चल पड़ी फिर अपनी अजनबी राहों पर। मेरा चीखना चिल्लाना कौन सुनता और मैं सुनाती भी किसे, मैं अनाथ जो थी। आज जब मैं भी एक बूढ़ी लड़की की अवस्था में आ पहुंची हूं, फिर वहीं अपने पुराने पहिये वाले घर में तो आज समझ में आ गया है कि अनाथ लड़की का मतलब क्या होता हैं। दुनिया भर की चकाचैंध के बाद आना वही होता है जहां से षुरूआत होती हैं। लेकिन मैं अब क्या करूं? आज फिर एक अनाथ मेरे हाथों आई है उस कूड़ें के ढेर से। क्या मैं उसको वही रखकर मरता हुआ छोड़ दूं, या अपनी तरह अनाथ बना दूं। आज ज्ञात हो गया कि गलती उस बूढ़ी लड़की की नहीं है जिसने मुझ अनाथ को जिन्दा रखा। गलती तो उन लड़कियों की होती है जो इन अनाथों को पैदा करती है और छोड़ देती है किसी कूड़े ढेर में अनाथों की जिन्दगी जीने के लिये और सिर्फ जिन्दा रहने के लिये।


Monday, September 8, 2014

बस थोड़ा सा ख्याल.........

                           कुपोषितों को चाहिये थोड़ा ख्याल     

प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बच्चों की सर्वांगीण देखरेख करना अतिआवष्यक हैं, क्योंकि यहीं एक समय हैं जब बच्चों का षारीरिक से लेकर मांषिक विकास होता हैं। और प्रारम्भ में देख रेख की कमी के कारण बच्चें कुपोषण का षिकार होते हैं। विकसित राष्ट्रों की अपेक्षा विकासषील देषों में कुपोषण की समस्या सर्वांधिक हैं। इसका प्रमुख कारण है गरीबी। 
 भारत में हर तीन गर्भवती महिलाओं में से एक कुपोषण का षिकार होती हैं, जिससे उनमें खून की कमी होती हैं। जिसकारण वह खुद तो इससे ग्रस्त होती ही है साथ ही होने वाले बच्चे पर इसका प्रभाव पड़ता हैं। भारत में प्रत्येक वर्ष 20 लाख बच्चें 5 वर्ष की आयू पूरी नहीं कर पाते। और 1000 बच्चें प्रतिदिन डायरिया की वजह से मरते हैं। विष्व में भारत में सबसे अधिक प्रोग्राम बालविकास को लेकर चलाये जाते हैं, फिर भी यहां कुपोषण दर सबसे अधिक हैं। भारत में बच्चों की यह स्थिति किसी अमरजेन्सी से कम नहीं हैं। यही मानव विकास के लिये सबसे बड़ी चुनौती है। भारत में 43 प्रतिषत बच्चें कुपोषण का षिकार हैं। यह कोई छोटी बात नहीं है, फिर भी यह हमारी नीतियों व निजि जिंदगी को उतना प्रभावित नहीं करती जितनी करनी चाहिये, हमे इसके लिये भी अत्यधिक जागरूक होना चाहिये।
 मीडिया को चाहिये कि इसको भी उतनी प्रमुखता दें, जितनी बाकी विकास सम्बन्धी कार्यों को दी जाती हैं। जिसतरह मीडिया के द्वारा हम भारत को पोलियो मुक्त राष्ट्र की श्रेणी में रख पाये है उसी तरह कुपोषण से भी मुक्ति पायें। किन्तु बच्चों की इस तरह की जिन्दगी और उनके स्वास्थ्य को अनदेखा करना हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में आम बात हो गई हैं। खबरों के अलावा कई ऐसी फिल्में आई हैं जो हमें इसके लिये झकझोंर के चली गईं हैं किन्तु कितने समय के लिये? ऐसा नहीं है कि हमारे पास संसाधन कम हैं या योजनायें नहीं हैं, किन्तु समझ में नहीं आता कि योजनायें व जागरूकता अभियान निर्माण के लिये बनाये जाते हैं या प्रमाण के लिये?

Sunday, September 7, 2014

                         न डरो, न सहो, चीख सको तो चीख लो


पता नहीं आज इस समाज में क्या हो रहा है? औरतों की इस दषा का जिम्मेदार कौन है? और कौन है वो जिसकी वजह से आज मां बाप अपनी ही बच्चियों को बाहर आने जाने से रोकते है। हर बार इस तरह के सवालात हमारे समाज में जहां तहां मिल जाते हैं और जवाब में तो फिर कहना ही क्या? जितने ही यह सवाल संजीदा होते है उनके जवाब उतने ही बेहुदे ढंग से दिये जाते है। लड़कियों का कपड़े पहनना, उनका लेट नाइट बाहर रहना, उनका ज्यादा बोलना, उनका ज्यादा उम्र तक अविवाहित रहना। क्या इन स्थितियों में बदलाव करने से समाज में लड़कियों के खिलाफ बढ़ रही कुरीतियां कम हो जायेंगी। मुझे तो नहीं लगता, और ये बदलाव क्यों हो? क्यों हमेषा औरतों के लिये ही नियम कानून बनाने जरूरी है। एक औरत जहां हमारे परिवार को चलाती है जो इस पुरूष प्रधान देष में उनके बच्चोें को पालती है उनका घर सम्भालती है। तो क्या उसे इतना भी अधिकार नहीं कि वह जिस घर के लिये अपना पूरा जीवन न्यौछावर कर देती है, वह उस घर के लिये फैसले में अपना मत दे सके। अपना मत और अधिकार की बात तो बहुत दूर है, हर षर्म और लज्जा का बेड़ा भी बस उसी के कन्धों पर है जिसे कोई भी आके अपने पैरों तले कुचलकर चल देता हैं। बात यहां सिर्फ उनकी आवरू के हनन की नहीं हैं, उनका आत्मसम्मान उनकी इच्छा भी कोई चीज हैं। बस बलात्कार होना फिर बलात्कारियों को सजा दिलवाना ही हमारा धर्म नहीं है। बल्कि जो कोई भी इस पीड़ा से गुजरा हो उसे न्यायिक कार्यवाही के अलावा एक व्यक्तिगत सहानुभूति की भी जरूरत होती है, जो हमारा सर्वसुसज्जित समाज नहीं दे पाता है। बल्कि पीड़ित को दया और सहानुभूति की नजर से नहीं बल्कि षक की नजर से देखा जाता है। उसे पल पल ये एहसास दिलाया जाता है कि उसके साथ जो हुआ ये उसकी गलती थी। कहीं कहीं तो इन पीड़ितों को देखके हमारे सभ्य समाज के लोगोें का बयान होता है। कि इस लड़की में ऐसा क्या था जो इसके साथ ये हुआ। क्या था? क्या सच में इन चीजों के बारें में हम ऐसा कथन बोल सकते है। बलात्कार ही एक ऐसी आपदा नहीं है जिससे महिलायें बच्चियां जूझ रही है। दहेज के लिये अपनी बहु बीवियों को मारना, घरेलू हिंसा, कोख में ही बच्चियों को मारना, षिक्षा के साधन न होना, बाल-विवाह करा देना, आदि अनेक चीजें है जिससे आज की महिला अभी तक लड़ रही हैं। आज भलें ही हम कहने के लिये 21वीं सदी में आ गये होगें, किन्तु महिलाओं की स्थिति आज भी कल जैसी ही हैं। आज भी गलती चाहे किसी की भी हो, बुरा काम किसी ने भी किया हो, लेकिन अग्नि परीक्षा हमेषा औरतों ने ही दी हैं। आज यदि किसी लड़की के ऊपर किसी लड़कें ने बुरी नजर डाली तो घर वाले लड़की की ही षादी जल्दी करा देंगें। और यदि पति के साथ न बनें तो जल्दी बच्चा करने की जिद डालने लगते हैं। षादी, बच्चा किसी समस्या का हल नहीं, बल्कि उसके ऊपर डाली गई जिम्मेदारियां है। जब कभी भी एक युवती ने किसी तरह की समस्या का समाधान मांगा है तो उसे समाधान की जगह एक नई जिम्मेदारी का बोझ डाल दिया गया है। हम हमेषा कहते है कि स्थितियां बदल रही है बदलाव अपनी चरम सीमा पर है। किन्तु महिलाओं के लिये स्थितियां बद से बदत्तर हो रही हैं। और इनके समाधान के नाम पर आष्वासन के साथ एक नया जिम्मा दे दिया जाता हैं। कहते है कि षिक्षा इस स्थिति में बदलाव लायेंगा। मुझे तो दुख होता है देखके कि हमारे बहुषिक्षित समाज के लोग भी इससे अछूते नहीें रहें। मैं पिछले दिनों एक षादी में गई, षादी क्या वो एक समझौता था जो किसी न किसी जिम्मेदारी को लेके उस 17 साल की लड़की से कराया जा रहा था। अच्छे खासे पढ़े लिखे षहरी समाज में बढ़ी उस लड़की की षादी अपने से 10 साल बढ़े एक पढ़े लिखे लड़के से ही की जा रही थी। लेकिन क्या उसे पढ़ने का हक नहीं था जो उसके साथ ये किया जा रहा था। कहते है कि मां बाप हमेषा अपने बच्चों के लिये जो करते है अच्छा ही करते है, तो ये क्या अच्छापन हुआ। सबसे ज्यादा नाष तो इस षादी के डर ने किया है। ये मत करो वरना ससुराल में क्या मुंह दिखायेंगें हम, अरे खाना बनाना सीख लो वरना नाक कटवाओगी जाके ससुराल में, ज्यादा नहीं पढ़ायेंगें फिर उतना पढ़ा लड़का भी ढूढ़ना पड़ेगा। क्या है ये चोचले? हर चीज लड़कियों के लिये क्यों? चाहे पारिवारिक हिंसा हो चाहे बाहरी इनसे लड़ना खुद युवतियों को सीखना होगा। अपने अधिकारों का गठन खुद करो। जो है जैसा है उससे बाहर निकलों। अपनी षक्तियों को पहचानकर अपनी बौद्विकता का प्रयोग कर ऐसे समाज का निर्माण करने में लगो जहां तुम्हारी चीखें औरों तक पहुचें। खुद अपने लिये व अपनी जैसी औरों के लिये ढाल बनो। न सहो और न डरो, लड़ो व अपने अधिकारों अपनी इज्जत के लिये जितना चीख पाओ चीखो! तभी हम अपने लिये एक उचित जगह बना पायेंगें। दयनीयता व लाचारी से बड़कर भी एक स्थिति होती हैं। उसमें जीना सीखों।
                                                                                                             सोनम राठौर
                                                                                                             एमसीजे द्वितीय वर्ष

Thursday, August 28, 2014

बेटियां.....

                                   हम ही से हैं

इस प्रतिष्टित समाज में अगर पानी हो थोड़ी सी जगह, तो क्या दोगें?
दोगें क्या? क्या तुम मानोगे, कि है हमारा अस्तित्व भी, गर तुम न हो।
है हमारा अधिकार भी, गर तुम ना दो।
है हमें भी चाह हर उस चीज की, जिसको पाने की राह तुम्हें हम ही से मिली।
गर कर लोंगे जरा सा सम्मान तो तुम्हारा क्या बिगड़ जायेगा, तुम्हारे सम्मानों के लिये बिगाड़ा हमने हम ही को है।
बिगाड़ रहे हो गर आज, तो ये चक्र फिर से घूमेंगा।
रहें बिलख गर आज हम, तो चैन से तुम कहां सो रहें?
पुराणों में भी लिख दिया, कि है हम घर की स्वामिनी।
हम ही से है ये संसार और रची ये धरती हम ही ने ही।
दिया अगर सम्मान, तो तिरस्कार भी तुमने दिया।
सवाल तो तुम पर भी थे, क्यों अग्नि परीक्षा हम ही से ली।
हैं बहुत सी विडम्बना, छाया है घोर अन्धेरा।
सवाल तो बहुत से है, गर जवाब तुम दे सको।

हैं तुम्हारे घर में भी बहु, बीवी, बेटियां।

न डरो, न सहो, चीख सको तो चीख लो...

            न डरो, न सहो, चीख सको तो चीख लो
पता नहीं आज इस समाज में क्या हो रहा है? औरतों की इस दषा का जिम्मेदार कौन है? और कौन है वो जिसकी वजह से आज मां बाप अपनी ही बच्चियों को बाहर आने जाने से रोकते है। हर बार इस तरह के सवालात हमारे समाज में जहां तहां मिल जाते हैं और जवाब में तो फिर कहना ही क्या? जितने ही यह सवाल संजीदा होते है उनके जवाब उतने ही बेहुदे ढंग से दिये जाते है। लड़कियों का कपड़े पहनना, उनका लेट नाइट बाहर रहना, उनका ज्यादा बोलना, उनका ज्यादा उम्र तक अविवाहित रहना। क्या इन स्थितियों में बदलाव करने से समाज में लड़कियों के खिलाफ बढ़ रही कुरीतियां कम हो जायेंगी। मुझे तो नहीं लगता, और ये बदलाव क्यों हो? क्यों हमेषा औरतों के लिये ही नियम कानून बनाने जरूरी है। एक औरत जहां हमारे परिवार को चलाती है जो इस पुरूष प्रधान देष में उनके बच्चोें को पालती है उनका घर सम्भालती है। तो क्या उसे इतना भी अधिकार नहीं कि वह जिस घर के लिये अपना पूरा जीवन न्यौछावर कर देती है, वह उस घर के लिये फैसले में अपना मत दे सके। अपना मत और अधिकार की बात तो बहुत दूर है, हर षर्म और लज्जा का बेड़ा भी बस उसी के कन्धों पर है जिसे कोई भी आके अपने पैरों तले कुचलकर चल देता हैं। बात यहां सिर्फ उनकी आवरू के हनन की नहीं हैं, उनका आत्मसम्मान उनकी इच्छा भी कोई चीज हैं। बस बलात्कार होना फिर बलात्कारियों को सजा दिलवाना ही हमारा धर्म नहीं है। बल्कि जो कोई भी इस पीड़ा से गुजरा हो उसे न्यायिक कार्यवाही के अलावा एक व्यक्तिगत सहानुभूति की भी जरूरत होती है, जो हमारा सर्वसुसज्जित समाज नहीं दे पाता है। बल्कि पीड़ित को दया और सहानुभूति की नजर से नहीं बल्कि षक की नजर से देखा जाता है। उसे पल पल ये एहसास दिलाया जाता है कि उसके साथ जो हुआ ये उसकी गलती थी। कहीं कहीं तो इन पीड़ितों को देखके हमारे सभ्य समाज के लोगोें का बयान होता है। कि इस लड़की में ऐसा क्या था जो इसके साथ ये हुआ। क्या था? क्या सच में इन चीजों के बारें में हम ऐसा कथन बोल सकते है। बलात्कार ही एक ऐसी आपदा नहीं है जिससे महिलायें बच्चियां जूझ रही है। दहेज के लिये अपनी बहु बीवियों को मारना, घरेलू हिंसा, कोख में ही बच्चियों को मारना, षिक्षा के साधन न होना, बाल-विवाह करा देना, आदि अनेक चीजें है जिससे आज की महिला अभी तक लड़ रही हैं। आज भलें ही हम कहने के लिये 21वीं सदी में आ गये होगें, किन्तु महिलाओं की स्थिति आज भी कल जैसी ही हैं। आज भी गलती चाहे किसी की भी हो, बुरा काम किसी ने भी किया हो, लेकिन अग्नि परीक्षा हमेषा औरतों ने ही दी हैं। आज यदि किसी लड़की के ऊपर किसी लड़कें ने बुरी नजर डाली तो घर वाले लड़की की ही षादी जल्दी करा देंगें। और यदि पति के साथ न बनें तो जल्दी बच्चा करने की जिद डालने लगते हैं। षादी, बच्चा किसी समस्या का हल नहीं, बल्कि उसके ऊपर डाली गई जिम्मेदारियां है। जब कभी भी एक युवती ने किसी तरह की समस्या का समाधान मांगा है तो उसे समाधान की जगह एक नई जिम्मेदारी का बोझ डाल दिया गया है। हम हमेषा कहते है कि स्थितियां बदल रही है बदलाव अपनी चरम सीमा पर है। किन्तु महिलाओं के लिये स्थितियां बद से बदत्तर हो रही हैं। और इनके समाधान के नाम पर आष्वासन के साथ एक नया जिम्मा दे दिया जाता हैं। कहते है कि षिक्षा इस स्थिति में बदलाव लायेंगा। मुझे तो दुख होता है देखके कि हमारे बहुषिक्षित समाज के लोग भी इससे अछूते नहीें रहें। मैं पिछले दिनों एक षादी में गई, षादी क्या वो एक समझौता था जो किसी न किसी जिम्मेदारी को लेके उस 17 साल की लड़की से कराया जा रहा था। अच्छे खासे पढ़े लिखे षहरी समाज में बढ़ी उस लड़की की षादी अपने से 10 साल बढ़े एक पढ़े लिखे लड़के से ही की जा रही थी। लेकिन क्या उसे पढ़ने का हक नहीं था जो उसके साथ ये किया जा रहा था। कहते है कि मां बाप हमेषा अपने बच्चों के लिये जो करते है अच्छा ही करते है, तो ये क्या अच्छापन हुआ। सबसे ज्यादा नाष तो इस षादी के डर ने किया है। ये मत करो वरना ससुराल में क्या मुंह दिखायेंगें हम, अरे खाना बनाना सीख लो वरना नाक कटवाओगी जाके ससुराल में, ज्यादा नहीं पढ़ायेंगें फिर उतना पढ़ा लड़का भी ढूढ़ना पड़ेगा। क्या है ये चोचले? हर चीज लड़कियों के लिये क्यों? चाहे पारिवारिक हिंसा हो चाहे बाहरी इनसे लड़ना खुद युवतियों को सीखना होगा। अपने अधिकारों का गठन खुद करो। जो है जैसा है उससे बाहर निकलों। अपनी षक्तियों को पहचानकर अपनी बौद्विकता का प्रयोग कर ऐसे समाज का निर्माण करने में लगो जहां तुम्हारी चीखें औरों तक पहुचें। खुद अपने लिये व अपनी जैसी औरों के लिये ढाल बनो। न सहो और न डरो, लड़ो व अपने अधिकारों अपनी इज्जत के लिये जितना चीख पाओ चीखो! तभी हम अपने लिये एक उचित जगह बना पायेंगें। दयनीयता व लाचारी से बड़कर भी एक स्थिति होती हैं। उसमें जीना सीखों।

                                                सोनम राठौर
                                   एमसीजे द्वितीय वर्ष