Thursday, August 28, 2014

बेटियां.....

                                   हम ही से हैं

इस प्रतिष्टित समाज में अगर पानी हो थोड़ी सी जगह, तो क्या दोगें?
दोगें क्या? क्या तुम मानोगे, कि है हमारा अस्तित्व भी, गर तुम न हो।
है हमारा अधिकार भी, गर तुम ना दो।
है हमें भी चाह हर उस चीज की, जिसको पाने की राह तुम्हें हम ही से मिली।
गर कर लोंगे जरा सा सम्मान तो तुम्हारा क्या बिगड़ जायेगा, तुम्हारे सम्मानों के लिये बिगाड़ा हमने हम ही को है।
बिगाड़ रहे हो गर आज, तो ये चक्र फिर से घूमेंगा।
रहें बिलख गर आज हम, तो चैन से तुम कहां सो रहें?
पुराणों में भी लिख दिया, कि है हम घर की स्वामिनी।
हम ही से है ये संसार और रची ये धरती हम ही ने ही।
दिया अगर सम्मान, तो तिरस्कार भी तुमने दिया।
सवाल तो तुम पर भी थे, क्यों अग्नि परीक्षा हम ही से ली।
हैं बहुत सी विडम्बना, छाया है घोर अन्धेरा।
सवाल तो बहुत से है, गर जवाब तुम दे सको।

हैं तुम्हारे घर में भी बहु, बीवी, बेटियां।

न डरो, न सहो, चीख सको तो चीख लो...

            न डरो, न सहो, चीख सको तो चीख लो
पता नहीं आज इस समाज में क्या हो रहा है? औरतों की इस दषा का जिम्मेदार कौन है? और कौन है वो जिसकी वजह से आज मां बाप अपनी ही बच्चियों को बाहर आने जाने से रोकते है। हर बार इस तरह के सवालात हमारे समाज में जहां तहां मिल जाते हैं और जवाब में तो फिर कहना ही क्या? जितने ही यह सवाल संजीदा होते है उनके जवाब उतने ही बेहुदे ढंग से दिये जाते है। लड़कियों का कपड़े पहनना, उनका लेट नाइट बाहर रहना, उनका ज्यादा बोलना, उनका ज्यादा उम्र तक अविवाहित रहना। क्या इन स्थितियों में बदलाव करने से समाज में लड़कियों के खिलाफ बढ़ रही कुरीतियां कम हो जायेंगी। मुझे तो नहीं लगता, और ये बदलाव क्यों हो? क्यों हमेषा औरतों के लिये ही नियम कानून बनाने जरूरी है। एक औरत जहां हमारे परिवार को चलाती है जो इस पुरूष प्रधान देष में उनके बच्चोें को पालती है उनका घर सम्भालती है। तो क्या उसे इतना भी अधिकार नहीं कि वह जिस घर के लिये अपना पूरा जीवन न्यौछावर कर देती है, वह उस घर के लिये फैसले में अपना मत दे सके। अपना मत और अधिकार की बात तो बहुत दूर है, हर षर्म और लज्जा का बेड़ा भी बस उसी के कन्धों पर है जिसे कोई भी आके अपने पैरों तले कुचलकर चल देता हैं। बात यहां सिर्फ उनकी आवरू के हनन की नहीं हैं, उनका आत्मसम्मान उनकी इच्छा भी कोई चीज हैं। बस बलात्कार होना फिर बलात्कारियों को सजा दिलवाना ही हमारा धर्म नहीं है। बल्कि जो कोई भी इस पीड़ा से गुजरा हो उसे न्यायिक कार्यवाही के अलावा एक व्यक्तिगत सहानुभूति की भी जरूरत होती है, जो हमारा सर्वसुसज्जित समाज नहीं दे पाता है। बल्कि पीड़ित को दया और सहानुभूति की नजर से नहीं बल्कि षक की नजर से देखा जाता है। उसे पल पल ये एहसास दिलाया जाता है कि उसके साथ जो हुआ ये उसकी गलती थी। कहीं कहीं तो इन पीड़ितों को देखके हमारे सभ्य समाज के लोगोें का बयान होता है। कि इस लड़की में ऐसा क्या था जो इसके साथ ये हुआ। क्या था? क्या सच में इन चीजों के बारें में हम ऐसा कथन बोल सकते है। बलात्कार ही एक ऐसी आपदा नहीं है जिससे महिलायें बच्चियां जूझ रही है। दहेज के लिये अपनी बहु बीवियों को मारना, घरेलू हिंसा, कोख में ही बच्चियों को मारना, षिक्षा के साधन न होना, बाल-विवाह करा देना, आदि अनेक चीजें है जिससे आज की महिला अभी तक लड़ रही हैं। आज भलें ही हम कहने के लिये 21वीं सदी में आ गये होगें, किन्तु महिलाओं की स्थिति आज भी कल जैसी ही हैं। आज भी गलती चाहे किसी की भी हो, बुरा काम किसी ने भी किया हो, लेकिन अग्नि परीक्षा हमेषा औरतों ने ही दी हैं। आज यदि किसी लड़की के ऊपर किसी लड़कें ने बुरी नजर डाली तो घर वाले लड़की की ही षादी जल्दी करा देंगें। और यदि पति के साथ न बनें तो जल्दी बच्चा करने की जिद डालने लगते हैं। षादी, बच्चा किसी समस्या का हल नहीं, बल्कि उसके ऊपर डाली गई जिम्मेदारियां है। जब कभी भी एक युवती ने किसी तरह की समस्या का समाधान मांगा है तो उसे समाधान की जगह एक नई जिम्मेदारी का बोझ डाल दिया गया है। हम हमेषा कहते है कि स्थितियां बदल रही है बदलाव अपनी चरम सीमा पर है। किन्तु महिलाओं के लिये स्थितियां बद से बदत्तर हो रही हैं। और इनके समाधान के नाम पर आष्वासन के साथ एक नया जिम्मा दे दिया जाता हैं। कहते है कि षिक्षा इस स्थिति में बदलाव लायेंगा। मुझे तो दुख होता है देखके कि हमारे बहुषिक्षित समाज के लोग भी इससे अछूते नहीें रहें। मैं पिछले दिनों एक षादी में गई, षादी क्या वो एक समझौता था जो किसी न किसी जिम्मेदारी को लेके उस 17 साल की लड़की से कराया जा रहा था। अच्छे खासे पढ़े लिखे षहरी समाज में बढ़ी उस लड़की की षादी अपने से 10 साल बढ़े एक पढ़े लिखे लड़के से ही की जा रही थी। लेकिन क्या उसे पढ़ने का हक नहीं था जो उसके साथ ये किया जा रहा था। कहते है कि मां बाप हमेषा अपने बच्चों के लिये जो करते है अच्छा ही करते है, तो ये क्या अच्छापन हुआ। सबसे ज्यादा नाष तो इस षादी के डर ने किया है। ये मत करो वरना ससुराल में क्या मुंह दिखायेंगें हम, अरे खाना बनाना सीख लो वरना नाक कटवाओगी जाके ससुराल में, ज्यादा नहीं पढ़ायेंगें फिर उतना पढ़ा लड़का भी ढूढ़ना पड़ेगा। क्या है ये चोचले? हर चीज लड़कियों के लिये क्यों? चाहे पारिवारिक हिंसा हो चाहे बाहरी इनसे लड़ना खुद युवतियों को सीखना होगा। अपने अधिकारों का गठन खुद करो। जो है जैसा है उससे बाहर निकलों। अपनी षक्तियों को पहचानकर अपनी बौद्विकता का प्रयोग कर ऐसे समाज का निर्माण करने में लगो जहां तुम्हारी चीखें औरों तक पहुचें। खुद अपने लिये व अपनी जैसी औरों के लिये ढाल बनो। न सहो और न डरो, लड़ो व अपने अधिकारों अपनी इज्जत के लिये जितना चीख पाओ चीखो! तभी हम अपने लिये एक उचित जगह बना पायेंगें। दयनीयता व लाचारी से बड़कर भी एक स्थिति होती हैं। उसमें जीना सीखों।

                                                सोनम राठौर
                                   एमसीजे द्वितीय वर्ष