Thursday, October 12, 2017

औरतें किसी की बापौती नहीं हैं....

ख़ुद एक महिला होने के कारण शायद आप मुझे महिलाओं की हिमायती या कुछ और समझे, मुझे कोई समस्या नहीं है। क्यूंकि जिस लेवल का महिलाएं घरेलु मानसिक और शारीरिक अत्याचार सह रही हैं, उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में रेप से सम्बंधित एक कानून लाया है, जिसमें 18 साल से कम उम्र की लड़की चाहे वो शादी शुदा ही क्यों न हो, उसके साथ किया शारीरक सम्बन्ध रेप ही माना जायेगा। भाई फ़ैसला तो क़ाबिले तारीफ़ है, क्यूंकि जल्दी शादी करने को लेकर समस्या ही यही थी। कुछ माता पिता तो आर्थिक तंगी से, लेकिन कुछ बस इसलिए अपनी बेटियों की शादी जल्दी कर देते थे, कि कहीं उनके साथ कुछ बुरा न हो जाये या वो किसी के साथ प्रेम में न पड़ जायें। बस उनकी शादी करा दी जाये, फिर चाहे शादी के बाद उनका पति उनके साथ जो भी करे, सब जायज़। सिर्फ शादी किसी को भी हक़ दे देती है, कि औरत तो उनकी बापौती है।

पिछले दिनों मेरे सामने दो बाते आई, एक तो मैंने अपनी एक सीनियर का लेख पढ़ा जिसमें उन्होंने एक महिला के बारे में बताया, कि उस महिला की कम उम्र में शादी कर दी जाती है। और शादी की पहली रात उसका पति उसके साथ इतनी बुरी तरह से सेक्स करता है, कि उस महिला के मुँह से फैना आ जाता है और वो बेहोश हो जाती है। उसका पूरा बिस्तर खून से लथपथ हो जाता है। ये लाइन पढ़कर मेरे पूरे शरीर में एक कौंध सी दौड़ गई। मेरे दिमाग में बस यही था की क्या बीती होगी उस महिला पर, वो अचानक से तो बेहोश हुई नहीं होगी, कितना भयानक मंजर होगा उस महिला के लिए। ये उसके साथ एक बार नहीं कई बार हुआ और इतना सबकुछ होने के बाद भी हर रात वो ये झेलती थी। शादी के काफी सालों बाद जब उस महिला से पूछा गया कि अभी आप उस समय के बारें में क्या महसूस करती हो, तो उनका जवाब था, क्या करे मैडम जी मर्द तो ऐसे ही होते है, उन्हें तो हक़ जमाना ऐसे ही आता है। वाकई! सिर्फ़ मर्दों का हक़! औरतों का हक़ कहाँ है भाई?

ये सिर्फ एक महिला की कहानी नहीं है। क्यूंकि जो दूसरी बात मैंने जानी वो ये है, कि हाल ही में मैंने वर्ल्ड बैंक की SDGs (Sustainable Development Goals) के ऊपर एक रिपोर्ट पढ़ी, जिसमें एक सर्वे से ये पता चला है की विश्व में 40% महिलाओं को ये हक़ तक नहीं है कि वो कब गर्भ धारण करना चाहती है और कब नहीं। साथ ही वो अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी फैसले भी खुद से नहीं ले सकती। ऐसे तो भारत में अभी भी महिलाओं को बहुत से फैसले लेने का हक़ नहीं है। लेकिन कम से कम ये हक़ तो होना चाहिए कि कब वो सेक्सुअली कम्फ़र्टेबल है और कब नहीं। सुप्रीम कोर्ट का ये फ़ैसला शायद उन लोगों के लिए मददगार होगा, जो इसके लिए आवाज़ उठाएंगे। क्यूंकि कब से हमारे यहां बाल विवाह पर कानून है। इसके बावजूद बाल विवाह आज भी हमारे समाज में है। मैं तो उन सब बच्चियों, लड़कियों, महिलाओं को बस इतना कहना चाहूंगी, कि कानून हमारा सहारा, हमारा हथियार बन सकते है। लेकिन उनको चलाना हमें ही हैं। तो अपने अधिकारों को पहचानकर जो जैसा है वैसे में मत रहिये। आपको भी उतना ही हक़ है जितना बाकि सभी को। 

Wednesday, September 6, 2017

औरत ही #Female

वो घन्टों तक चलती है लाने को थोड़ा सा पानी,
बुझा सके जिससे वो अपनों की प्यास.
वो छोड़ देती है घर अपना, 
निभाने को जिम्मेदारियां परिवार की.
बिनती है टुकड़ा टुकड़ा बनाने को फिर से एक नया घर, 
जो उजड़ा था पिछली रात को,
थकती नहीं है कभी वो अपनी जिम्मेदारियों से.
क्या बनाओगे उसे, 
वो दाता भी है, दासी भी, 
नेता भी है  और सेवक भी.
वो कोई और नहीं, है औरत ही.

Tuesday, August 1, 2017

एक #Click की कीमत तुम क्या जानो #Viewer बाबू...

अब कीमत किसकी है और ये कीमत लगा कौन रहा है और उसका फल कौन पा रहा है. इसका आकलन करना थोड़ा मुश्किल है. क्योंकि आजकी इस इन्टरनेटीय नुमाइश में हर किसी को इंतजार है तो बस एक क्लिक का. फिर चाहे उसके लिए फूहड़ता की कोई भी हदें पार करनी पड़े या मनोरंजन के नाम पर कुछ भी परोसा जाये, इससे किसी को कोई मतलब नहीं.

एक समय था जब लोग कला के कद्रदान थे, और कलाकार भी ऐसे कि बस वाहवाही के भूखे. ऐसे ही दौर ने न जाने कितने कलाकारों को जन्म दिया है. ऐसा नहीं है कि आज कलाकारों की कमी है. आज भी एक से बढ़कर एक कलाकार पैदा हो रहे है. लेकिन इन सब के बीच कुछ बरसाती मेढ़क ऐसे आ जाते है, जो कला के मायने ही बदल देते है. वैसे आज के इस दौर में सब कुछ डिजिटिलाइजेशन पर ही चल रहा है. यहाँ तक कि कला की ये परख भी. बस एक क्लिक की दौड़ में हमारे कलाकार भाग रहे है. कैसे भी करके एक क्लिक मिल जाये बस. अगर सब्सक्रिप्शन हो जाये तो शायद उन्हें रात भर नींद ही न आये. उनके हुनर को पहचान तभी मिलेगी जब उनके फोलोवेर्स सोशल मीडिया पर ज्यादा होंगे. इस भीड़ का हिस्सा न जाने कितने लोग बनते जा रहे है.

पहले के कलाकार कहते है कि हमारे समय पर ये सब नहीं था. रेडियो टेलीविज़न, समाचार पत्रों के ज़रिये उन्हें पहचान मिल जाती थी. उनका यही हुनर उनकी पहचान को बनाये रखता था. उनके अनुसार पहले बहुत ज्यादा मशक्कत करनी पड़ती थी किसी भी काम के लिए. जबकि आज का दौर अलग है एक क्लिक से इन्सान रात भर में फेमस हो जाता है. लेकिन अब भला उन्हें कौन समझाए कि ये एक क्लिक पाने के लिए लोग क्या क्या करने को तैयार हो गये है. मुझे तो ये लगता है शायद लोगों ने अपना दिमाग कहीं ख़ुफ़िया तिजोरी में छुपा कर रख दिया है. सोचा ऐसे ही काम चल रहा है तो इसकी क्या जरुरत. वैसे वाकई हमने अपना दिमाग कहीं छुपा दिया है क्या? क्योंकि मनोरंजन के नाम पर जो  मार्केट में आ रहा है, और उसे हम खुले हाथों से ले रहे है, तो कहीं न कहीं कुछ न कुछ झोल जरुर है. 

वैसे फेसबुक पे भी अब विडियो पोस्ट का इतना हुजूम फ़ैला है की पूछो मत. पहले तो इतने लम्बे लम्बे पोस्ट शेयर किये जाते थे. लेकिन जब लगा कि इन पोस्ट को पढने के लिए लोगों के पास समय ही नहीं है. तो जन्म हुआ विडियो स्टोरीज का. फेसबुक से लेकर इन्स्टा, ट्विटर भर गया इन वीडियोज से. लेकिन अब लगता है लोगों का  इन बेफिजूल वीडियोज से भी मन भरता जा रहा है. ऐसे में कुछ हुनरबाजों के लिए ये दिक्कत आ गई कि अब वो कैसे अपने हुनर को दिखाए? शायद मैंने ही अभी नोटिस किया हो कि अब हर वो दूसरा आदमी जो अपने आप को हुनारबाज मानता है, अपने विडियो के ऊपर लिखता है कृपया आखिरी तक देखे. या कई तरीकों से ये बात मनवाता कि आप आखिरी तक देखोगे तो ही मज़ा आयेगा या आप इस कहानी को तभी समझ पाओगे. सच में प्रतिस्पर्धा की इस दौड़ ने एक तरफ तो बस एक क्लिक के ज़रिये धिन्चक पूजा जैसे (उनके ख़ुद की जुबानी) कलाकारों को पैदा किया है. वही किरण यादव जैसे लोगों के फोलोवेर्स बढ़ाये है. सच में साइबर की इस बढ़ती दुनिया में एक अलग ही किस्म का मनोरंजन पैदा हो रहा है. जहाँ ये फ़र्क करना मुश्किल है कि क्लिक करके आप एंटरटेन हो रहे हो या किसी के क्लिक बढ़ाके उसे एंटरटेन कर रहे हो.

Monday, July 31, 2017

#savehumanity कोई भी जंग कभी मुबारक नहीं होती

भारत को आज़ादी गुलामी से परेशान लोगों  ने दिलवायी थी, कोई हिन्दू या मुसलमान ने नहीं... तो ज़ितना ये देश हिन्दुओ का हैं उतना ही मुसलमानो का. कहां से लोगों के अन्दर इतनी क्रूरता आ रही हैं.. क्या हैं ये?? 
मुसलमान होना गुनाह है क्या??? हलक से निबाला कैसे ऊतरा होगा उन लोगों के ज़िनके हाथ एक बच्चे को मारने से पहले कापे नहीं. 
गाय गाय गाय बस हर तरफ सिर्फ गाय... ये साला इतना ही प्यार हैं गायों के प्रति तो आज इतनी सारी गाय रोड पर घूमती क्यूँ नजर आती हैं. ज़ितने लोग भीड बनके किसी को मारके चले जाते हैं अगर उतने लोग ही गायों को पाल ले तो कुछ गायों की वजह से कोई और धर्म की बली नहीं चढ़ेगा. किसी को ट्रफेक में भीख मांगते बच्चे क्यूँ नहीं दिखते? किसी को क्यूँ नहीं सुनाई देती किसी लड़की की चीखे जब उसके साथ रेप होता हैं? क्यूँ नहीं मिटाता कोई ऊँच नीच का फासला? कब तक हम एक दूसरे को नोचते रहेंगे? क्यूँ नहीं समझ आता लोगों को हिंसा हर बात का सुधार नहीं हैं? ऐसा करके हम एक नये ग्रह युद्ध को बढावा दे रहे हैं और कमलेश्वर जी ने अपनी किताब 'कितने पाकिस्तान' में कहा हैं कि "कोई भी जंग कभी मुबारक नहीं होती" #savehumanity #violenceagainsthumanity #liveyourlife

Tuesday, January 10, 2017

महिलाओं की इज्जत को उनकी योनी में किसने रखा? #Kamla_Bhasin


वैसे तो महिलाओं की सुरक्षा आज के समय में सबसे अहम् मुद्दा है. लोग इसके बारें में खुलके बात करते हैं. हम महिलओं को कैसे सुरक्षित रख सकते है इसके तरीके बताते है. महिलओं को अपनी सुरक्षा को लेकर क्या क्या करना चाहिए ये भी बताते है. हमारे इस बुद्धिजीवी समाज में न जाने ऐसे कितने लोग मिल जायेंगे. लेकिन बंगलौर में घटित घटना सबकी असलियत को उजागर करती एक तस्वीर है. ये तो उस जगह की बात है जो बुद्दिजीवी के क्षेत्र में अपना एक स्थान रखता है. अब सोचिये न जाने कितनी ऐसी जगह हैं जो हर तरह से पिछड़ी है ऐसे में वहां क्या हो रहा है इसकी तो किसी को खबर तक नहीं है. न ही उनकी आवाज को कोई चेहरा मिल पा रहा है. ऐसे में इसका मापन कैसे हो. 

लाहौर में अभी हाल ही में पंजाब सेफ सिटीज अथॉरिटी और पंजाब कमीशन ऑन द स्टेटस ऑफ़ वोमेन ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए एक एप्प बनाई जिसमें वो ये भी अंकित कर सकती है कि कौन सी जगह उनके लिए खतरनाक है. चलो ये तो लाहौर की बात रही. लेकिन फिर भी, है तो महिलओं की सुरक्षा को लेकर. वैसे मेरी बात का तात्पर्य यही है कि जब इतनी बातें, सेमिनार, वर्कशॉप होते है. यहाँ तक की महिलाओं की सुरक्षा कैसे की जाये इस पर डिबेट भी होता है. फिर भी परिणाम स्वरुप हमारे हाथ में लगता क्या है? अब जब एप्प ऐसी बनाई जा रही है, जिसमे हम जगह अंकित कर सकते है कि कौन सी खतरनाक है. तो बात यहाँ ये उठती है. कि वो जगह खतरनाक क्यों है? और अगर इतनी खतरनाक है तो महिलाओं को वहां जाने की जरुरत क्या है? तो किसी एप्प में अगर ये बात आ गई है कि जगह कौन सी खतरनाक है. तो ऐसे में उन जगहों का ब्यौरा बनाकर वो क्यों खतरनाक है इस पर कार्य करना चाहिए. 

ये तो रही एक बात. अब बात दूसरी ये है कि हम कितना भी अपनी महिलाओं के लिए सुरक्षा मुहैया करा दे. लेकिन उनके खिलाफ़ वारदात कम नहीं होती. ऐसे में बात ये सामने आती हैं कि कोई भी हेल्पिंग नंबर और एप्प तब तक कार्य नहीं करेगा जब तक हम एक निश्चित सजा निर्धारित नहीं करते. और सजा के साथ एक समय सीमा भी. क्योंकि जो मैंने देखा है पिछले दिनों में वो ये है कि अब हमलावरों के अन्दर डर नहीं रहा हैं किसी भी घटना को करने से पहले वो परिणामों के बारें में नहीं सोचते. अब उनके अन्दर एक अजीब सी बेचैनी है जो उनके सोचने समझने की शक्ति को उस पल के लिए खत्म कर देती है. दूसरी बात की उनकी परवरिश किस माहौल में हुई है. जहाँ उनके अन्दर किसी भी चीज के लिए सोचने समझने की शक्ति उत्पन्न नहीं होती. व कुछ ऐसी सोच वाले भी होते है जिनके लिए महिला सिर्फ उपभोग की वस्तु है. उससे अधिक अगर उसने कदम बढ़ाएं तो उसके कदम को वही कुचल दिया जाता है. हमें आज महिलाओं के लिए सुरक्षित समाज से ज्यादा जो पीड़ित महिलाएं है उनके लिये एक बेहतर समाज बनाने की जरुरत है. क्योंकि हमेशा घर से निकलने से पहले उनके मन में ये ख्याल तो आता ही है कि कही कुछ हो गया तो. लेकिन उससे भी अधिक डर उन्हें ये विचार करता है कि वो किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं बचेंगी. व समाज उनके बारें में क्या सोचेगा. तो डर उन्हे घटना का नहीं बल्कि घटना के बाद के परिणामों का हैं. जो हम उन्हें देते है. 

अपराधी तो अपराध करके चला जाता है. लेकिन उसके अपराध की सजा हम महिलाओं को देते है. सबसे पहला जो विचार आता है कि उसकी इज्जत लुट गई. तो यहां मुझे 'कमला भसीन' जी की एक बात याद आती है कि महिलाओं की इज्ज़त को उनकी योनि में किसने रखा। इज्जत का मतलब क्या होता हैं?  जबकि इज्ज़त से ज़्यादा उसके आत्मसम्मान के बारें में कोई बात क्यों नहीं करता,  कोई उसकी इच्छा के विरुद्ध जो अपराध हुआ है उसके बारें में बात क्यों नहीं करता, कोई ये बात क्यों नहीं करता कि उस पीड़िता को कैसे समाज में सम्मान से रहने दिया जाये. अगर हम ऐसा समाज बनाने में सफल हो गये, जहाँ दोषी को दोषी ही माना जाये, पीड़िता को सम्मान से जीने दिया जाये. तो महिलाओं के अन्दर ये डर कि समाज क्या सोचेगा नहीं रहेगा. और दोषियों की प्रवत्ति, की इनको सबक सिखाना चाहिए वो भी कम होगी. और शायद सम्मान के साथ महिलाओं के अन्दर इन अपराधों से लड़ने की ताकत आ जाये. और उनकी इस ताकत को देखकर अपराधी अपराध करने से पहले १० बार सोचें. क्योंकि महिलाएं सशक्त हैं. वो अपना अच्छा बुरा अच्छे से जानती है. बस उनके इस सशक्तिकरण को समाज में जगह दिलवानी हैं. ये सब कुछ कल्पनायें है जो किसी किसी के समझ से तो परे है क्योंकि अब हमारी प्रवत्ति सोचने समझने से हटकर हमलावर हो गई है. वो कहते है न डूबते को तिनके का सहारा और एक चिंगारी आग लगा देती है. बस अब हम यही कर रहे है. तिनका मिलता नहीं और चिंगारियां तो आये दिन आग लगाती रहती है.