Sunday, March 26, 2023

कुपोषण, पोषण सम्बन्धी विश्व का सबसे बड़ा स्वास्थ्य भार #Malnutrition

पोषण न सिर्फ़ शारीरिक बल्कि मानसिक असंतुलन के लिए ज़िम्मेदार होता है| बदलती जीवनशैली और वैश्वीकरण के कारण खाने में बहुत ही विविधताएँ आयी हैं, एक चीज जो अभी भी नहीं बदली है, कि लोग अभी भी सिर्फ़ भूख के लिए खाते हैं, पोषण के लिए नहीं| उनका ध्यान होता है कि पेट भरना चाहिए, पेट भरने की प्रक्रिया में पोषण कितना मिल रहा है, उसपर अभी उतना ध्यान नही दिया जा रहा है| 

व्यापक राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण-2016-18 (सीएनएनएस 2016-18) की रिपोर्ट के अनुसार कुपोषण सिर्फ़ प्रदेश या देश स्तर की बात नहीं बल्कि बच्चों और महिलाओं में कुपोषण की स्थिति पोषण सम्बन्धी विश्व का सबसे बड़ा स्वास्थ्य भार है| यानि सिर्फ़ सही पोषण की कमी के कारण यह समस्या अभी भी विश्व की सबसे बड़ी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या बनी हुयी है| 

रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश में छः से 23 माह तक के सिर्फ़ 4.3 प्रतिशत शिशुओं को न्यूनतम स्वीकार्य आहार मिलता है| यानि एक शिशु को जितना आहार मिलना चाहिए लगभग उतना ही| 

सर्वे के अनुसार यदि बच्चों में पोषण की बात करें तो नवजात या बच्चों को वयस्क से ज्यादा पोषणयुक्त भोजन की आवश्यकता होती है| एक नवजात को जहाँ 120 केलोरी प्रति एक किलो चाहिए होती हैं वही दस साल से अधिक उम्र को 56 केलोरी प्रति किलो की जरुरत होती है|

सरकार के द्वारा भी शिशुओं के सही पोषण के लिए शुरुआती एक हज़ार दिन को बढ़ावा दिया जा रहा है| जिसके अंतर्गत जन्म से लेकर शिशु के दो साल तक के समय में सबसे ज्यादा पोषण पर ध्यान देने की जरुरत होती है| छः माह तक तो सिर्फ़ स्तनपान ही कराना होता है, उसके बाद शिशु के पूरक आहार पर ध्यान देना होता है| राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे- 5 (2019-21) के अनुसार प्रदेश में छः माह से 23 माह तक के सिर्फ़ 5.9 प्रतिशत बच्चों को स्तनपान के साथ पूरक आहार दिया जा रहा है| वहीँ आधी आबादी कहीं जाने वाली महिलाओं में भी 15 से 49 उम्र की लगभग 50 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी की समस्या से ग्रसित हैं| वहीँ 15 से 49 वर्ष के 21.5 प्रतिशत पुरुषों में खून की कमी की समस्या है| 19 प्रतिशत महिलाओं का बॉडी मास्क इंडेक्स (बीएमआई) नार्मल से कम हैं वहीँ, 17.9 प्रतिशत पुरुषों का बीएमआई नार्मल से कम हैं| 

किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज की न्यूट्रीशन विभाग की हेड डॉ. सुनीता सक्सेना बताती हैं सही पोषण के लिए जरुरी है कि सभी अपनी डाइट में सभी खाद्य समूहों को शामिल करें, जैसे कि कार्बोहाईड्रेट, प्रोटीन, फैट, विटामिन, मिनरल, फाइबर, और वाटर| और अपने खाने को पूरे दिन में चार भागों में बांटे, सुबह का नाश्ता, दोपहर का खाना, शाम में हल्का खाना या तरल पदार्थ लेना, और रात का खाना| और कोशिश करे कि खाने में इंद्राधनुष के सभी रंग जैसे कि लाल, पीला, हरा, नारंगी, सफ़ेद/भूरा, नीला/बैंगनी शामिल करें| 

डॉ. सुनीता बताती हैं कि बच्चों से लेकर बड़ों तक को खाने का यही तरीका अपनाना चाहिए| बच्चों में खाद्य की मात्रा और उसे देने का तरीका अलग होता है| बच्चे हर चीज आसानी से नहीं निगल सकते, तो उनकी उम्र के अनुसार खाद्य पदार्थों को निगलने में सरल बनाते हुए खिलाना चाहिए| 

सही पोषण न मिलने के प्रभाव

डॉ. सुनीता सक्सेना बताती हैं कि सही पोषण न मिलने पर, शरीर पर बहुत से चिकित्सीय प्रभाव पड़ते हैं जैसे कि आंतों में संक्रमण, पोषक तत्व को अवशोषित करने में समस्या, मांसपेशियों की हानि, त्वचा में संक्रमण, पेनक्रियाज में समस्या, शुगर जोखिम में वृद्धि, लीवर व प्रतिरक्षा प्रणाली में समस्या, श्वासप्रणाली में संक्रमण,  हृदय रोग सम्बन्धी समस्या, भूख में कमी, सुस्ती, दीर्घकालिक विकासात्मक प्रभाव, थायरॉयड, तनाव, शारीरिक विकास, हार्मोनल असंतुलन आदि|

स्वीकार्य आहार

अनाज, कन्द व मूल, गाढ़ी पकी हुई दालें व फलियाँ, दूध व दुग्ध पदार्थ, अंडा, मांस व मछली, पके हुए नारंगी/ पीले रंग के गूदेदार फल एवं सब्जियां, हरी एवं पत्तेदार सब्जियां आदि|

बीएमआई

लंबाई के हिसाब से वजन का कम होना या अधिक होना की पहचान बीएमआई से की जाती है, यदि किसी का बीएमआई 18.5 किलोग्राम/मीटर² से 24.9 किलोग्राम/मीटर² है तो ही वह सामान्य श्रेणी में है यदि इससे कम या ज्यादा है तो वह अस्वस्थ है।

Wednesday, February 16, 2022

ज़हर लगते हो... #patriarchal

 तुम कहते हो कि मेरे लिए सब समान है, और अपने घर जाकर अपनी घर कि बहू बेटी को उनके अस्तित्व की वजह से कमतर मानते हो, मुझे बहुत जहर लगते हो।

तुम कहते हो कि नारी सशक्त है वह अब अबला नहीं सबला है, और फिर अपनी मर्दानगी का दिखावा करते हो, मुझे बहुत जहर लगते हो।

तुम कहते हो कि सबको शिक्षा का समान अधिकार है, हम जो चाहे पढ़ सकते है, और फिर एक निश्चित रास्ता तय कर देते हो, मुझे बहुत जहर लगते हो।

तुम कहते हो कि सबकी अपनी सोच है सबको अपनी बात रखने का अधिकार है, और फिर हमारी किसी भी बात को दरकनार  कर देते हो, मुझे बहुत जहर लगते हो।

तुम कहते कि लड़कियां तो हर क्षेत्र में झंडे गाड़ रही है, उनका कोई सानी नहीं, और फिर उनकी जगह दिखाने की कोशिश करते हो, मुझे बहुत जहर लगते हो।

Monday, August 2, 2021

ओलिंपिक्स #Olympics

ओलिंपिक्स में भारत की सहभागिता को 100 साल से भी ज़्यादा हो गए है। और अभी तक हम सिर्फ़ 30 मेडल ही अपने देश में लेकर आयें है, शायद इतने मेडल तो इस बार अकेला चीन ही लेकर जाए। खैर मेरा यहाँ मक़सद किसी की उपेक्षा करना नहीं हैं। लेकिन आप खुद ही सोचिए कि सबसे ज़्यादा पोषणयुक्त खाद्य पदार्थ उगाने वाला देश, दुनिया को योगा का पाठ पढ़ाने वाला देश में स्ट्रेंथ के स्तर पर हम इतने पीछे कैसे रह गए??? 

और क्या चीजें सिर्फ़ स्ट्रेंथ, मौक़े और संसाधन तक ही सीमित है????? नहीं.... चीजें सीमित है सोच में। हम आज अचानक से बेटियों के ऊपर अभिमान और हर्ष जताने लगे, उनकी संघर्ष गाथाएँ गाने लगे। मैं ये पूरे विश्वास के साथ कह सकती हूँ कि मीराबाई चानु और पीवी सिंधू जब हाथ में मेडल लिए भीड़ से अलग खड़ी होंगी तो उनके सामने भी वो चेहरे होंगे जिंहोने उनके संघर्ष के समय को अज़ाब बना दिया होगा। और आज वहीं दोगुली खुशी के साथ ये भारत की बेटी है नारे लगा रहें हैं। उनकी सफ़लता उन लोगों  मुंह पर थप्पड़ तो हो सकती है लेकिन इस थप्पड़ तक की दौड़ में जितने लोग सफ़ल हुये हैं उनको हम उँगलियों पर गिन सकते है। लेकिन उनका क्या जो इस सीमित सोच, संसाधन और अज़ाब के कारण कहीं पीछे ही छूट गए?

जब मैं देखती हूँ कि कोई भी मेडल लेकर लोग इतिहास रच रहे हैं तो एहसास होता है कि चाहे महिला वर्ग हो या पुरुष वर्ग- कितना इतिहास रचा जाना बाक़ी है। ऐसे में यह विचार करने की बहुत जरूरत हैं कि हम कहाँ पिछड़ रहे हैं? अगर मैं झाँसी का उदाहरण दूँ तो मेजर ध्यानचन्द्र के द्वारा पहला गोल्ड मेडल लाया गया। उनके नाम को भी हम गौरव से लेते है, लेकिन उनके बाद हम कितने और मेजर ध्यान चन्द्र या कोई और नाम ले लीजिये को तैयार कर पाये। उनके नाम पर स्टेडियम बनाकर करोड़ों का कारोबार तो कर लिया लेकिन क्या हम एक विश्व स्तरीय सफ़ल खिलाड़ी दे पाएँ? जब हमें आधार मिल गया तो उस पर शिला क्यों नहीं बना पाये? 

क्यों भारत में आज भी लोग मज़बूरी में, कष्ठ झेलकर, बिना किसी सटीक दिशा के, किस्मत से रास्ता मिल गया तो ही आ पाते हैं। 

क्यों हम उस मुकाम की तैयारी के लिए खुद तैयार नहीं जिसकी वाह वाही करने से पीछे नहीं हटते??? क्यों??


Wednesday, August 19, 2020

सरकार और विभाग

सरकार और विभाग दोनों के कार्य करने के तरीके, कार्य करने वाले लोग, उनका उद्देश्य, उनकी मानसिक सोच सब बहुत ही अलग होता है। जबकि ये दोनों  ही सिक्के के वो पहलू है जिन्हे रहना हमेशा साथ ही है, लेकिन इनका अस्तित्व एक समय में एक ही पहलू का होता है। 

सरकार और विभाग के लोगों में जब इस तरह का अंतर होगा तो क्या आपको लगता है कि इनमें सामंजस्य के साथ कार्य करने की क्षमता होगी। विभागीय व्यक्ति इतनी मेहनत से पढ़ लिखकर आता हैं और नौकरी लगते ही उसका एक परिश्रम और जुड़ जाता है कि नौकरी को बचाना है। शायद यह डर उसे खुलकर अपनी बौद्धिक क्षमता से कार्य करने का साहस नहीं दे पाता, जो कुछ करते भी है उनका हाल भी ऐसा हो जाता है कि एक समय के बाद वो भी हाथ जोड़कर खड़े हो जाते है। रही सरकार तो इन लोगों से तो अपेक्षा ही नहीं की जा सकती, क्योंकि इनका भी अलग माइंड सेट है कि बस 5 साल की सरकार है तो वह सत्ता के नशे में ही बने रहते है। अगर कोई सत्ताधारी अच्छा कार्य करता है तो क्या अगले चुनाव में जनता उसका वहिष्कर करेंगी? मुझे तो नहीं लगता है। हाँ, ये जरूर है कि इसपर एक शोध किया जा सकता है।

जिस देश में चुनाव के समय वोट ही 50 प्रतिशत पड़ते है तो आप बाकी के 50 प्रतिशत को भी बहुमत में शामिल करना अलग बात है। आज के समय में एक आम नागरिक और एक वोटर दोनों की सोच और उनकी बातों में बहुत अंतर है। अब हर मुद्दा वोटर बनाम नागरिक हो रहा है।

खैर बात यहाँ सरकार और विभाग की है, अभी इतने मुश्किल दौर से पूरा विश्व गुजर रहा है, ऐसे में सरकार को चाहिए कि वो विभागों से सामंजस्य बिठाये, एक सत्ताधारी न होकर एक आम इंसान की तरह सोचे और अपने विभागीय सदस्यों को भरोसा दिलाये कि कुछ भी हो, हम आपके साथ है। क्योंकि जैसा माहौल बन रहा है और बनारस में चिकित्सा अधिकारियों के इस्तीफ़े के बाद शायद और भी बने, कि अगर एक साथ विभागीय लोगों ने इस्तीफा दे दिया तो क्या सरकार के पास बैक अप प्लान है?

Thursday, July 11, 2019

मर्द को दर्द नही डर होता है #WorldPopulationDay


पित्रसत्तात्मक समाज में यह बहुत ही तथाकथित कहावत है कि मर्द को दर्द नही होता। हर किसी साहस पूर्ण काम के लिए पुरुष सबसे पहले आगे आते है। यहाँ तक कि अगर वह आगे न आए तो उन्हे कायर करार कर दिया जाता हैं। लेकिन एक ऐसा क्षेत्र है जहां पुरुष किसी भी रूप में पहले खुद से आगे नही आते, या तो कोई मजबूरी, या लालच या फिर कही कही जबर्दस्ती ही उनको ये कदम उठाने के लिए आगे करती है, वह है परिवार नियोजन। जब जनसंख्या एकदम उफान पर है और हम कभी भी जनसंख्या के मामले में विश्व में पहले स्थान पर आ सकते है, तो क्या पुरुषों की ज़िम्मेदारी नही बनती की वह आगे आकार परिवार नियोजन जैसे अहम मुद्दे पर अपनी भागीदारी दिखाये। परिवार नियोजन का भार सिर्फ महिला पर ही क्यों?

ग्लोबल हैल्थ रिपोर्ट के अनुसार विश्व में 40 प्रतिशत महिलाओं को ये अधिकार नही कि वह कब माँ बनना चाहती है और कब नही। जब उन्हे अपना गर्भ धारण करने की आज़ादी नही तो परिवार नियोजन की सारी चीज उनके कंधों पर क्यों डाल दी जाती है। आप बाज़ार या अस्पतालों में देखे तो कॉपर टी से लेकर, गोली, इंजेक्शन, नसबंदी सब महिला के लिए। पुरुषों के लिए एक दो साधन है भी लेकिन वो उसमें भी पीछे हट जाते है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस -4) के आंकड़े बताते है अगर कुल आधुनिक गर्भनिरोधक साधनों की बात की जाए तो 34% महिलाये नसबंदी करवाती हैं जबकि मात्र 1% पुरुष ही अपने हिस्सेदारी निभाते हैं जबकि उनके लिए ये विकल्प महिलाओं के मुकाबले बहुत आसान है।

अब पुरुष नसबंदी के लिए क्यों आगे नही आते उन्हे किस बात का डर है, जहां एक ओर एक महिला बच्चा पैदा करने से लेकर नसबंदी से संबन्धित ऑपरेशन के दौरान के सभी दर्द सहती है ऐसे में पुरुषो को किस बात का डर और दर्द होता है? इस बात का जवाब 2014 में लंदन स्कूल ऑफ हायजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिंस द्वारा किए गए सर्वेक्षण के में दिया गया है कि कम और मध्यम आय वाले देशों में पुरुष नसबंदी के लिए पुरुष इसलिए नही आते कि उन्हे ऐसा लगता है कि इससे पुरुषों के पुरुषार्थ अथवा यौन क्षमता पर असर पड़ेगा और लोग मज़ाक बनाएँगे वो अलग से। इसके साथ ही कुछ महिलाएं ऐसी होती है जो खुद पुरुषों को आगे आने नही देती, उन्हे लगता है ऐसा होने पर उनका पति किसी और के साथ संबंध बनाने के लिए भी आज़ाद हो जाएगा।

कहते है जीवन गाड़ी के दो पहियों के समान है और वो दो पहिये है महिला और पुरुष। लेकिन जब बात परिवार नियोजन की आती है तो सारा भार एक पहिये पर ही डाल दिया जाता है, यहाँ तक कि अगर किसी महिला को लड़का नही हो रहा तो उसमें भी उसी की गलती। अरे भले मानस थोड़ा तो दिमाग लगा लो। इसमें पढ़ाई का कुछ काम नही है क्योंकि मैंने अच्छे खासे पढे लिखे लोगों को भी यही करते देखा है।

Friday, June 28, 2019

मुझे नफरत है #Hate

मुझे नफरत है, हर चीज में जाति धर्म लाने से
मुझे नफरत है हर चीज को रंगों से जोड़ने से
मुझे नफरत है दूसरों का हक़ छीनने से
मुझे नफरत है किसानों के बेवजह मरने से
मुझे नफरत है नदियों का गलत दोहन करने से
मुझे नफरत है बेरोजगारी के बढ़ने से
मुझे नफरत है बेबुनियादी जुमले गढ़ने से
मुझे नफरत है लोगों के जज़्बातों से खेलने से
मुझे नफरत है इंसान को भगवान समझने से
मुझे नफरत है दूसरों पर आश्रित रहने से
मुझे नफरत है मुफ्त का खाने से
मुझे नफरत है भ्रष्टाचार बढ़ाने से
और मुझे नफरत है नफ़रत को और बढ़ाने से

You can never tell a Book by its Cover

Lester Fuller and Edwin Rolfe (उच्चारण गलत न हो इसलिए ऐसे लिखा) द्वारा कही गई ये कहावत सभी संदर्भों में सटीक बैठती है। इसका मतलब है कि किसी भी किताब को उसका कवर देखकर यह निर्धारित नहीं करना चाहिए कि ये अच्छी ही है, जबतक कि उसे पढ़ न ले। यही बात हमारे जीवन की हर चीज पर लागू होती है। जैसे कि ब्रम्हाण है तो शाकाहारी होगा, बिहारी है तो चालाक होगा, मुस्लिम है तो आतंकवादी होगा वगैरह वगैरह। ये बिना जाने पहचाने, बिना बात किए, बस किसी के कहने पर मान लेना वाली प्रवत्ति हम में कूट कूट कर भरी है। शायद इसी वजह से बहुत आसानी से हम भ्रमित हो जाते है। वैसे मेरे ये लेख लिखने का उद्देश्य आपकी भ्रमित प्रवत्ति को सही रास्ते पर पर लाना नही है, मैं यहाँ बस अपना एक अनुभव साझा कर रही हूँ, जिससे मेरा ये भ्रम हाल ही में टूट गया। शायद आप लोगों ने सुना हो या न लेकिन मैंने बहुत सुना है अपने दोस्तों से कि पहाड़ी लोग बहुत बफादार, और मदद करने वाले होते है। लेकिन अभी तक लगभग 4 पहाड़ी जगहों का भ्रमण करके मैंने ये जाना है और जैसे कि ये सार्वभौमिक सत्य भी है कि हर जगह हर तरह के लोग होते है आप उन्हे उनके पहाड़ी, उनके बिहारी या उनके काले, गोरे होने से जज नहीं कर सकते।

अभी हाल में मैं मेकलोडगंज (हिमाचल प्रदेश) घूमने के लिए गई, वहाँ पहले दिन घूमने की वजह से होटल आने में देरी हो गई, जिसकी वजह से होटल में हमें खाना नही मिल सका, जब हमने खाने के लिए मदद मांगी तो होटल में कोई ऐसा नही था जो हमारी मदद के लिए आगे आए, तब मैंने सोचा क्या सच में पहाड़ी लोग मददगार होते? फिर जब हम खुद बाहर खाना लेने के लिए निकले तो रास्ता न पता होने पर हमने एक लड़के से रास्ता पूछा और साथ ही कि यहाँ खाना कहा मिल सकता है, उस लड़के ने तुरंत फोन निकाल कर उसके किसी दोस्त को फोन किया उससे किसी होटल का नंबर मांगा और हमे दिया और कहा यहाँ से आप ऑर्डर कर दीजिये आपको यही देने आ जाएगा, फिर तो मुझे अपनी सोच पर संदेह हुआ, और मेरा विश्वास जाग गया। दूसरे दिन जब हम घूमने निकले तो मेरी सहेली जल्दबाज़ी में अपना फोन और चश्मा एटीएम पर ही छोड़ आई, फोन का खो जाने का दर्द मुझसे बेहतर कोई नही जान सकता, मेरे तीन फोन खोये है या कह ले चोरी हुये है। तो अब फोन का चला जाना मतलब उसके आने की कोई उम्मीद नही। फिर भी हमने सोचा चलो एक बार कॉल कर लिया जाए तो कॉल करने पर वहाँ से एक पुलिस वाले ने फोन उठाकर कहा कि आप फला जगह आकर फोन ले ले। हमे फोन और चश्मा दोनों मिल गया। फोन किसी ने एटीएम मशीन से उठाकर बगल के पुलिस स्टेशन में जमा कर दिया था। जहां एक ओर चोर पुलिस के साथ मिलकर चोरियाँ करती है वहाँ ईमानदारी का ये अच्छा उदाहरण है। अब तो मेरा विश्वास और मजबूत हो गया। फिर जब वापिसी के लिए हमने टैक्सी की तो उसने 600 रूपय बताए, हम मान गए क्योंकि हमे जल्दी भी थी और रास्ता दूर भी था। लेकिन वो टैक्सी वाले भैया (यूपी में हम भैया ही कहते है) ने न जाने कौन सा शॉर्ट कट लिया और 10 मिनट से भी कम समय में हमे हमारी मंजिल पहुचा दिया, मन ही मन इतना ठगा हुआ महसूस किया। विश्वास थोड़ा डगमगाया लेकिन सार यही निकला कि भाई हर जगह हर तरह के लोग होते है, और शायद तभी दुनिया चल रही है।