Monday, August 2, 2021

ओलिंपिक्स #Olympics

ओलिंपिक्स में भारत की सहभागिता को 100 साल से भी ज़्यादा हो गए है। और अभी तक हम सिर्फ़ 30 मेडल ही अपने देश में लेकर आयें है, शायद इतने मेडल तो इस बार अकेला चीन ही लेकर जाए। खैर मेरा यहाँ मक़सद किसी की उपेक्षा करना नहीं हैं। लेकिन आप खुद ही सोचिए कि सबसे ज़्यादा पोषणयुक्त खाद्य पदार्थ उगाने वाला देश, दुनिया को योगा का पाठ पढ़ाने वाला देश में स्ट्रेंथ के स्तर पर हम इतने पीछे कैसे रह गए??? 

और क्या चीजें सिर्फ़ स्ट्रेंथ, मौक़े और संसाधन तक ही सीमित है????? नहीं.... चीजें सीमित है सोच में। हम आज अचानक से बेटियों के ऊपर अभिमान और हर्ष जताने लगे, उनकी संघर्ष गाथाएँ गाने लगे। मैं ये पूरे विश्वास के साथ कह सकती हूँ कि मीराबाई चानु और पीवी सिंधू जब हाथ में मेडल लिए भीड़ से अलग खड़ी होंगी तो उनके सामने भी वो चेहरे होंगे जिंहोने उनके संघर्ष के समय को अज़ाब बना दिया होगा। और आज वहीं दोगुली खुशी के साथ ये भारत की बेटी है नारे लगा रहें हैं। उनकी सफ़लता उन लोगों  मुंह पर थप्पड़ तो हो सकती है लेकिन इस थप्पड़ तक की दौड़ में जितने लोग सफ़ल हुये हैं उनको हम उँगलियों पर गिन सकते है। लेकिन उनका क्या जो इस सीमित सोच, संसाधन और अज़ाब के कारण कहीं पीछे ही छूट गए?

जब मैं देखती हूँ कि कोई भी मेडल लेकर लोग इतिहास रच रहे हैं तो एहसास होता है कि चाहे महिला वर्ग हो या पुरुष वर्ग- कितना इतिहास रचा जाना बाक़ी है। ऐसे में यह विचार करने की बहुत जरूरत हैं कि हम कहाँ पिछड़ रहे हैं? अगर मैं झाँसी का उदाहरण दूँ तो मेजर ध्यानचन्द्र के द्वारा पहला गोल्ड मेडल लाया गया। उनके नाम को भी हम गौरव से लेते है, लेकिन उनके बाद हम कितने और मेजर ध्यान चन्द्र या कोई और नाम ले लीजिये को तैयार कर पाये। उनके नाम पर स्टेडियम बनाकर करोड़ों का कारोबार तो कर लिया लेकिन क्या हम एक विश्व स्तरीय सफ़ल खिलाड़ी दे पाएँ? जब हमें आधार मिल गया तो उस पर शिला क्यों नहीं बना पाये? 

क्यों भारत में आज भी लोग मज़बूरी में, कष्ठ झेलकर, बिना किसी सटीक दिशा के, किस्मत से रास्ता मिल गया तो ही आ पाते हैं। 

क्यों हम उस मुकाम की तैयारी के लिए खुद तैयार नहीं जिसकी वाह वाही करने से पीछे नहीं हटते??? क्यों??