Sunday, November 30, 2014

द्रष्टिकोण

कितना सुन्दर है ये नजारा. लोगो की भीड़ चहल पहल. बेफिक्र होकर सब मस्त है. सबको अपने होने का एहसास है और मैं भी इस भीड़ का हिस्सा हूँ कल की सोचे बिना बस मस्त. तरह-तरह के खाने के स्टॉल, जो खाने से ज्यादा अपनी सजावट के लिए आकर्षण का केंद्र बने हैं, सबमे एक नयापन हैं. राजस्थानी नाच की धूम मची हैं,, जहाँ मजीरो और ताशों पर रंग बिरंगे कपड़े पहने छोटे-छोटे बच्चें नाच रहे हैं.एक सीटी वाला साधारण सी सीटी को बड़े ही अनोखे ढंग से बजा रहा था. मैंने सोचा की मैं भी एक सीटी ले लूँ, फिर ख्याल आया अपनी काबिलियत पर की मुझसे तो बज गई ऐसे सीटी. वहां पर मौजूद हर वस्तु ने इस माहौल को जिन्दा कर रखा था. साथ में था पुस्तक मेला, जहाँ पर पुस्तकों का भण्डार तो देखने लायक था. लेकिन आज के इस मॉडर्न युग में एक क्लिक पर दुनिया चलती है, तो किताबें वाले ज्यादा थे खरीदने वाले थोड़े कम, उनमें से एक मैं भी थी. पूरे माहौल का जायजा लेने के बाद जब मैं एक कॉर्नर में चाय की दुकान पर बैठी तो बाकि सबको देखके लगा कि सब कितने व्यस्त है और जब कभी आप अकेले बैठकर भीड़  को देखते है तो वो नजारा कितना रोचक लगता है. मेरे बगल में एक सज्जन आराम से चाय की चुस्कियां ले रहे थे. मैं भी अपना ध्यान भीड़ की तरफ केन्द्रित किये हुए थी. तभी एक हाफ स्वेटर में इतनी ज्यादा ठण्ड को झेलता हुआ व्यक्ति (जो अभी मुश्किल से ३० का भी नहीं होगा, लेकिन अपनी दयनीय स्थिति की वजह से वृद्ध लग रहा था) ने मुझसे पूछा, बहन जी यहाँ जो सज्जन बैठे थे वह कहाँ गये. उन्होंने चाय पी और पैसे तो देके ही नहीं गये. मैंने न में सर हिला दिया की मुझे नहीं पता, लेकिन शायद मेरे ऐसा करने से उसकी आखिरी उम्मीद भी टूट गयी. वह बेचारा नौकर अपने मालिक की डांट खा रहा था, कि तुमने देखा तक नहीं कि कहां गया वह व्यक्ति बिना पैसे लिए तुमने उसे जाने कैसे दिया. चाय के पैसे तुम्हारी तनख्वा से कट. मुझे इतना ख़राब लगा और जैसे ही मैं उठी तो देखा वह व्यक्ति लौटकर आया और माफ़ी के साथ चाय के रूपए दिए. उस नौकर की जैसे जान में जान आई. बात यहां सिर्फ चाय के पैसे लौटाने की नहीं है और न ही यह कि उसने कितना महान काम किया. उस व्यक्ति ने तो वही किया जो उसे थोड़ी देर पहले करना था, जैसे ही उसकी चाय खत्म हुई थी. बात यहां सिर्फ ईमानदारी की है कैसे उस व्यक्ति ने अपनी गलती का एहसास कर उसे रूपए देने आ गया. यह एक छोटी सी बात थी. लेकिन अगर हम चाहे तो इन्ही छोटी छोटी चीजो से कोई बड़ी पहल भी कर सकते. और महान काम तब होगा जब आप सच में किसी के लिए मददगार साबित होंगे. अतः अपना द्रष्टिकोण ऐसा बनाये कि हफ्ते में एक बार हम किसी के कम आये.
राहे तो बहुत है जीने को, गर जी सके हम किसी के लिए.
बस जरा सी जहमत उठाने की देरी है, गर हम उठा सके किसी के लिए.

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