Monday, April 20, 2015

बस चाह है मुझे.....

इस खुले उन्मुक्त गगन में, उड़ने की चाह है मुझे.
अपने पंखो के सहारे, सपने साकार करने की चाह है मुझे.
चढ़कर सारी ऊचाइयां, एक आशियाना बनाने की चाह है मुझे.
अवला नही सबला हूँ मैं, बन्धनों की नहीं कारवां की चाह है मुझे.
बड़ों का आशीष लेकर, स्वयं को आजमाने की चाह है मुझे. 
मूक नहीं सशक्त हूँ मैं, आवाज उठाने की चाह है मुझे.
माँ बेटी बीवी के किरदारों के साथ ही, खुद का अस्तित्व बनाने की चाह है मुझे.
चुनरी से आँचल तो बना लिया, बस अब परचम लहराने की चाह है मुझे.


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