Thursday, October 15, 2015

काश!

                                                काश!

बचपन की यादें धुंधली और अधूरी होती है,
कितना भी याद कर  लो तब भी पूरी नहीं होती है.
याद मुझे भी है बचपन के धुंधलेपन  की,
मम्मी का चिल्लाना और पापा के अपनेपन की.
समय ने फिर उल्टा फेर मारा,
पापा चिल्लाने लगे मम्मी ने घर संभाला.
क्या ये थी उनकी सोच या समाज का दबाव,
कि बेटियों को भैया कम ही पढ़ाओ.
जब लड़कों की असफलता और लड़कियों की सफलता उन्हें चुभने लगी,
ये क्या है, क्यों है, ये सोचकर मैं डरने लगी.
अब तो मुझे ये फासला मिटाना है,
अपने पापा की बेटी नहीं बेटा बनके दिखाना हैं.
सपना बड़ा जरूर हैं, पूरा करने की जिद भी भरपूर है.
लेकिन......
काश पापा समझ पाते, उनकी कमी को बस अपने होने से भर पाते,
बेटे तो उनके हैं ही, अपनी बेटी को भी बेटी समझ पाते.

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